तब मैं डर सी जाती हूँ

किसी बात पर बिगङना तेरा

कभी यूँ ही ख़ामोश हो जाना

किस्मत को अपनी कोसते रहना

कुछ कङवी यादों को भूलने के लिए तङप उठना


ऐसे ही जब तू निराश हो जाता है

तब मैं डर सी जाती हूँ


किसी दिन तेरा परेशान होना

कभी तेरा किसी बात पर रुठ जाना

खुदमें कमियों को तलाशते रहना

कुछ रिश्तों पर तोहमतें लगाना


ऐसे ही जब तू गुस्सा हो जाता है

तब मैं डर सी जाती हूँ


किसी बात पर तेरी ज़ुबान लङखङाना

दबी हुई आवाज़ में तेरा रोना

कभी तुझे तुझ से ही हारते देखना

टूट रहे तेरे सपनों की आवाज़े सुनना


ऐसे ही जब तू ज़िन्दगी से हार जाता है

तब मैं डर सी जाती हूँ


किसी दिन हाथ पकङके मेरा

मेरी आँखों में आँखें डालना तेरा

फिर मुझसे बार बार पूछना तेरा

क्यूँ डर लगता है तुम्हें इतना?”


ऐसे ही जब तू सवाल पूछता है

तब मैं डर सी जाती हू


17 टिप्पणियाँ:

किसी दिन हाथ पकङके मेरा
मेरी आँखों में आँखें डालना तेरा
फिर मुझसे बार बार पूछना तेरा
“क्यूँ डर लगता है तुम्हें इतना?”

Shabnam....... kitni achchi love poem likhi hai... feelings ko kitni achche se ubhara hai.....

 

क्या कहूँ अब मैं। शब्दों का अकाल पड गया है। जो अच्छा है उसे अच्छा ज़रूर बोलूँगा।
प्यार को शब्दों के माध्यम से जीवंत कर दिया है आपने।

 

किसी दिन हाथ पकङके मेरा
मेरी आँखों में आँखें डालना तेरा
फिर मुझसे बार बार पूछना तेरा
“क्यूँ डर लगता है तुम्हें इतना?”

ऐसे ही जब तू सवाल पूछता है
तब मैं डर सी जाती हूँ

क्या बात है शबनम बहन , लाजवाब लिखा है । आपकी ये रचना सच कह रहा हूँ दिल को छु गयी । खासकर ये लाईन ।

 

बढीया लेख।

डरना मना है।

लेकीन
डरना जरूरी है।

 

शबनमजी खान
किसी दिन हाथ पकङके मेरा

मेरी आँखों में आँखें डालना तेरा

फिर मुझसे बार बार पूछना तेरा

“क्यूँ डर लगता है तुम्हें इतना?”

शब्द-शब्द , अक्षर - अक्षर, मानो हमसे बातें कर रहे हो । आपकी कविता बड़ी सुंदर एवं पठनीय लगी।
हार्दिक शुभकामनाए .

 

बहुत सुन्दर भाव है कविता के
बेहतरीन

 

- बहुत ख़ूबसूरत क़लाम

"ऐसे ही जब तू सवाल पूछता है

तब मैं डर सी जाती हूँ "


और मेरे ब्लाग पर आने का शुक्रिया

आप के लिये मेरी तरफ से बहुत दुआएं .............!

 

फिर मुझसे बार बार पूछना तेरा
“क्यूँ डर लगता है तुम्हें इतना?”
एक भावपूर्ण कविता,मन के अहसासों को उजागर करती हुई...

 

बहुत खुबसुरत कलाम.....काफ़ी अच्छा लिखती है आप

 

मोहतरमा शबनम साहिबा,
''मैं एक आम इंसान हूं'' के ज़रिये जहान भर का दर्द पेश करने के लिये मुबारकबाद
इतनी कम उम्र में ऐसी फिक्र-
''अल्लाह करे जोर-ए-कलम और जियादा''
'तब मैं डर जाती हूं'' के बारे में अपना एक शेर पेश कर रहा हूं--
चाहे जैसे भी हालात हों, राह कितनी भी दुश्वार हो,
ज़िन्दगी के उसूलों पे चल, हारकर बैठना छोड दे..
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

 

उच्च कोटि की एक उत्कृष्ट रचना है. सधन्यवाद

 

शुभ अभिवादन! दिनों बाद अंतरजाल पर! न जाने क्या लिख डाला आप ने! सुभान अल्लाह! खूब लेखन है आपका अंदाज़ भी निराल.खूब लिखिए. खूब पढ़िए!

 

“क्यूँ डर लगता है तुम्हें इतना?”
सवालो से डर लगता है, बेशक ये सवाल डर भगाने के लिये ही हो

 

hello
its really prevailing truths out of thought what others do...but u did it really superb by your imagination if its your!, oder wise all words are vain. its persistence really lots of things.any ways....nice way of appreciations. go beyond d imaginations.

regards.
anilimits@gmail.com

 

कविता के भाव बहुत लाजवाब हैं ......... अच्छी रचना है ..........

 

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