मुद्दों की भीङ में मुद्दे की तलाश


लोग मुझसे पूछते है अक्सर लिखना क्यूँ छोङ दिया...मेरा जवाब एक सा ही रहता है...मन नहीं करता...बस। पर फिर ये सवाल बार बार ज़हन में आता है कि क्या सच में केवल यहीं कारण है मेरे न लिखने का? लेखन न केवल मेरे पत्रकारिता जीवन का आधार है बल्कि ये मेरा शौक भी है...तो फिर क्यूँ इस शौक में अब दिलचस्पी घटने लगी है...

एक दिन लिखने की तीव्र इच्छा मन में जागी। नहीं...ऐसा कोई खास विषय नहीं था मेरे पास, केवल अपने आपको पत्रकार होने का अहसास कराना चाहती थी। फिर शुरू हुई विषय की खोज.. मेरा क्रांतिकारी मन किसी ज्वलंत मुद्दे पर अपने विचार और तर्को को शब्द देना चाह रहा था पर ये चाहत पूरी न हो सकी क्योंकि मुद्दों की भीङ में मैं चाहकर भी कोई ऐसा मुद्दा नहीं ढ़ूंढ पाई जो वाकई मुद्दा हो।

दरअसल, जब मैं अपना काग़ज़ कलम लेकर बैठी, उन दिनों अयोध्या की विवादित ज़मीन पर फैसला आने वाला था। साथ ही, दिल्ली में 19वें राष्ट्रमंडल खेलों के श्री गणेष की तैयारी भी अपने अंतिम चरण पर थी। ये दोनों ही विषय अखबारों, चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों और तमाम वेब पोर्टलों की सुर्खिया बने हुए थे। पर उनमें से अधिकतर खबरें देखें तो लगता था मानों वो कोई खबर ही न हो केवल एक खानापूर्ति हो।

वास्तविकता ये है कि अब मुद्दे सामने आते ही नहीं। वो खो जाते है इन छदम मुद्दों की भीङ में। अब काफी ढूंढने पर ही आपको कही कही कुछ ऐसे लेख या स्टोरी मिल पाती है जो विचारणीय हो। अन्य पढ़कर महसूस होता है कि केवल ड्यूटी बजाने के लिए या लिखते रहने के लिए कुछ लिख दिया है। पर यहां तो न कोई ऐसी ड्यूटी है और न ही केवल कुछ लिखने के लिए लिखने वाली सोच...मुझे तो चाहिए मुद्दा...जिसकी तलाश है मुझे आपको कोई मुद्दा मिले तो ज़रूर बताईये...क्योंकि मैं वाकई लिखना चाहती हूँ पर मुद्दों की भीङ में मुद्दे की तलाश कर पाने में खुदकों असमर्थ पाती हूँ।

भाई, माल साथ बैठा है, आंखे सेक रहा हूँ...


बहुत दिनों बाद कल डीटीसी बस में जाना हुआ। मेट्रो की सहूलियत ने तो डीटीसी बस का सफर ही भुला दिया था, पर कल बस में जाना ज़रूरत भी थी और मजबूरी भी...हां, तो मैं एक खाली डीटीसी बस की विंडो सीट पर बैठ गई। बस अभी चली नहीं थी कि तीन लङके जिनकी उम्र 8-9 साल लग रही थी, वो बस में चढ़े। वो तीनों मेरे सामने की एक सीट पर बैठ गए। बैठते ही उन्होंने धमा-चौकङी मचानी शुरू कर दी। पहले तो मैंने उन पर ध्यान नहीं दिया, पर थोङी देर बाद जब उन बच्चों की शरारतें बढ़ने लगी तो मैंने उन पर ध्यान देना शुरू किया। वो लगातार आने जाने वाले लोगों पर कमेंट कर रहे थे, गालियां दे रहे थे और जमकर शोर मचा रहे थे।

बस में तीन चार लोग और चढ़ गए थे पर सब अपनी अपनी धुन में मस्त थे तो किसी ने उनको रोका टोका नहीं। फिर उनमें से एक मेरे पास आकर बैठ गया। अभी भी तीनों की हरकतें जारी थी। वो बच्चे आने जाने वाली लङकियों पर ऐसी फब्तियां कस रहे थे कि सुनने वालों को शरम आ जाए। मैं ये सब काफी हैरानी से देख रही थी। फिर मेरे साथ बैठा वो बच्चा मुझपर ही कमेंट करने लगा, पर यहां मैं शान्त रही। केवल उनकी बातों को सुनती रही। तभी, सामने बैठे बाकी दो बच्चों ने उसे अपने पास बुलाया तो उसने जवाब दिया... भाई, माल साथ बैठा है, आंखे सेक रहा हूँ... अब मुझसे रहा नहीं गया और मैंने तेज़ की चिल्लाकर उसे अपने पास वाली सीट से हटने के लिए कहा। मैरा ज़रा सा गुस्सा दिखाना था कि वो डर गया और चुपचाप उठकर अपने दोस्तों के पास चला गया।

अब बस चलने लगी थी। मुझे लगा था बस चलने पर वो तीनों उतर जाएंगे क्योंकि वो वहीं आस पास के स्कूल..माफ कीजिएगा सरकारी स्कूल के बच्चे थे जो लंच टाईम में भाग कर आ गए थे, उन्होने कोई टिकट वगैरह भी नहीं ली थी। पर ऐसा नहीं हुआ वो बच्चे उतरे नहीं। अब बस में बैठे कुछ सभ्य लोग अपना आपा खोने लगे और उन्हें डांटने लगे। पर वो बच्चे उनसे भी उलझने लगे। इतने में एक अधेङ उम्र का आदमी उनके पास गुस्से में गया उसने उन्हें दो-चार थप्पङ रसीद कर दिए...फिर कुछ और लोग उठकर आए और बच्चों को ज़बरदस्ती खींच कर बस से उतारने लगे। बस अभी रूकी भी नहीं थी कि उन्होंने उन तीनों को एक साथ नीचे धकेल दिया। तीनों बच्चे सङक पर गिर गए और उनमें से एक के सिर पर चोट आ गई। बस ड्राईवर ने बस रोकने की ज़हमत तक नहीं की। वो सभ्य लोग अपने हाथ झाङकर विजयी मुस्कान के साथ अपनी अपनी सीटों पर दोबारा बैठ गए। तब उनमें से एक बोला, भई, सहते रहोगे तो ज़ुल्म बङेगा, सामना करोगे तब जाके कुछ हल निकलेगा । उनकी ये बात सुनकर मैं सोच में पङ गए कि यहां ज़ुल्म आखिर कर कौन रहा था और सह कौन रहा था। उनकी उम्र के अच्छे घरों के बच्चे या यूँ कहूँ कि आर्थिक रूप से सक्षम घरों के बच्चे मुझे दीदी कहकर पुकारते है,पर उनके लिए मैं एक मालथी। क्या उनकी परवरिश में कमी थी या उनके परिवार की आर्थिक व सामाजिक स्थिति ने उन्हें ऐसा बनाया। या फिर स्कूली शिक्षा के रुप में उनके साथ औपचारिकताएं पूरी की जा रही थी...

जब मैं नुक्कङ पर खङे युवा लङकों को सिगरेट फूंकते, आती जाती लङकियों को छेङते और छोटी-छोटी बातों पर गाली गलौच करते देखती हूँ तो मुझे उनके भविष्य की चिंता होती है कि आगे जाकर ये कैसे अपनी ज़िंदगी बिता पाएंगे...ये नुक्कङ भी उनका साथ कब तक देगा। इस यंगिस्तान के बाद जब चाईल्डिस्तान के ये हालात देखे तो चिंता और बढ़ गई। देश का भविष्य कहे जाने वाले ये बच्चे किस राह पर चल पङे है इसकी चिन्ता करने का वक्त शायद किसी के पास नहीं। कॉमनवेल्थ गेम्स की तथाकथित सफलता के पीछे हमारे देश की ऐसी कई असफलताएं छुपी हुई है, ठीक उसी तरह जैसे गेम्स के दौरान शानदार सङको, फ्लाईओवरों और तमाम खूबसूरत इमारतों के बीच कुछ बस्तियां बङे बङे परदों से छिपी हुई थी....