मुझे इन्सान ही रहने दो.....

जो दिल कहता है मेरा

वो बात मुझे सबसे कहने दो

इन्सान की औलाद हूँ मैं

मुझे इन्सान ही रहने दो

न बाँटो मुझे किसी धर्म में

न किसी दायरे में रहने को कहो

इस पिंजरे से निकलना चाहती हूँ मैं

मुझे उस आसमान का हिस्सा बनने दो

किसी रिश्ते की आड़ में

क्यूँ बिताऊँ मैं अपनी ज़िन्दगी

नहीं चाहिये बेटी, बहन, बीवी और माँ का दर्जा

मुझे ज़िन्दगी को अपने ढंग से जीने दो

अपनी इज्जत के नाम पर मुझपर

हुकूमत चलाना अब छोड दो

मेरे सीने पर धङकता एक दिल भी है

उन धङकनो को मेरी तुम बक्श दो

जो दिल कहता है मेरा

वो बात मुझे सबसे कहने दो

इन्सान की औलाद हूँ मैं

मुझे इन्सान ही रहने दो....

और वो चला गया......



हूँ तो मैं नास्तिक, पर कभी-कभी परिवार के साथ निज़ामुद्दीन औलिय़ा की दरगाह पर चली जाती हूँ। कोई ईश्वरीय शक्ति नहीं, वहाँ की चहल-पहल और रौनक मुझे वहाँ खीच ले जाती है। कुछ दिन पहले मैं भी दरगाह पर गई। शाम का वक्त था। मेरी माँ हर बार की तरह प्राथना में लीन हो गई तो मैं एक तरफ चबूतरे पर बैठ गई और आने-जाने वाले श्रद्धालुओं को देखने लगी। लोग हाथों में फूलो की टोकरी, रंग-बिरंगी मखमली चादरें, अगरबत्ती, ईलाइची दाने लेकर बाबा को खुश करने के लिए आए हुए थे, ताकि उनकी मुरादें जल्दी-जल्दी पूरी हो सकें। उनके चेहरों को देखकर मैं उनके वहाँ आने का कारण जानने की अपनी अजीब सी कोशिश में पूरी तरह डूबी हुई थी (चूंकि बहुत से लोग आज दूसरों के बारे में सोचने को वक़्त की बरबादी मानते हैं लेकिन मैंने आज भी अपने सीने में इंसानियत को ज़िन्दा रखा हुआ है) तभी अचानक मुझे महसूस हुआ जैसे कोई मेरा ध्यान अपनी तरफ करने की कोशिश कर रहा है। देखा तो एक 4-5 साल का नन्हा, खामोश आँखों वाला एक लङ़का पास ही खङा़ हुआ था। मैंने जिस तरह हैरानी से उसे देखा था, उससे उसे लगा कि मैं शायद नाराज हो गई हूँ और किसी भी पल उस पर अपना गुस्सा उतार सकती हूँ। वो सहम कर पीछे हट गया। मैं अपने चेहरे पर मुस्कुराहट लाई और उसे पास बुलाने का इशारा किया। डरा सहमा वो बच्चा मेरे पास आया तो मैंने उसका हाथ पकङ़ कर अपने पास बिठा लिया। कपङो़ के चीथङो़ में लिपटा वो मासूम पहले तो डर के मारे बैठने का साहस नहीं कर पा रहा था फिर मेरे जोर देने पर वह बैठ गया। मैंने पूछा, क्या हुआ? मेरे पास क्यूँ आये? मेरे इस प्रश्न पर उसके सूखे होंठ हिले तक नहीं, जैसे सिले हुए हों। मैंने प्रश्न दोहराया। तब उसने काँपती ज़ुबान में कहा, पैसे दे दो। उसके इस करूणामयी निवेदन ने उसके प्रति मेरी जिज्ञासा को और बढा दिया था। मैंने स्नेहपू्र्वक कहा, अच्छा दूंगी, पर पहले थोङी देर मुझसे बातें करो। उसने हाँ में सिर हिलाकर मेरी प्रश्न रूपी रेल को जैसे हरी झंडी ही दिखा दी।
फिर मैंने उससे उसका नाम पूछा, उसने बताया "साहिल"। मेरे इस सवाल पर कि वह यहाँ किसके साथ आया है, वह खामोश रहा। सवाल दोहराने पर उसने बताया कि वह अपनी नानी के साथ यहाँ आया है। माँ-बाप के बारे में पूछने पर उसके कोमल मुख पर उदासी के भाव उभर आये...कुछ पल खामोश रहने के बाद उसने बताया कि उसका पूरा परिवार दरभंगा(बिहार) में हैं। जब उससे यहाँ (दिल्ली) आने का कारण पूछा तो उस नन्हीं सी जान ने तपाक से उत्तर दिया पैसा कमाने। जब उससे रहने-सोने के ठिकाने के बारे में पूछा तो उसने निराशाजनक स्वर में कहा फुटपाथ पर। इन दो शब्दों के जवाब ने मुझे कुछ पल के लिये बेज़ुबान कर दिया। उसके चेहरे से उसका दर्द साफ झलक रहा था।
रोज न जाने कितने लोग अन्य राज्यों से दिल्ली आते हैं। उद्देश्य वही....पैसा कमाना। अपने इस काम मे वे लोग अपने बच्चों का भी भरपूर प्रयोग करते हैं। खेलने-कूदने और शिक्षा अर्जित करने की उम्र में उन्हें या तो मजदूरी करनी पङ़ती है या फिर भीख मांगनी पङ़ती हैं। दोनों ही सूरत में उनका बचपन अंधेरे में ढकेल दिया जाता है। कभी अपने आसपास नजर घुमाकर देखिये तो....जिन्हें हमारे नेता अपने भाषणों में अत्यंत गर्व के साथ भारत का भविष्य बताते घूमते हैं, वो गौरवशील भविष्य खुद अपने भविष्य से अन्जान होता है। सरकार ने तो बाल मजदूरी और भीख माँगने को अवैध घोषित कर दिया...पर क्या इन मासूमों को कोई उचित विकल्प उपलब्ध करवाया ? कोई भी माँ-बाप अपने जिगर के टुकङे़ को अपनी खुशी से इतनी दूर भीख मांगने नहीं भेजेगा, अवश्य मजबूरी ही रही होगी....
वो मासूम बच्चा..कितना दर्द था उसकी आँखों में..क्या मैं 2-5 रू. देकर उसका बचपन सुधार सकती थी? मैं तो अपनी सोच में खो गई थी कि तभी उस बच्चे के निवेदनात्मक शब्द फिर मेरे कान में पङे़ “अब पैसे देदो”....मैं उस मासूम दर्दभरी आँखो का दर्द और नहीं बढा सकती थी। मैनें उसे कुछ पैसे दिये तभी एक आवाज आई “कहाँ मर गया, जल्दी इधर आ”....देखा तो एक बूढी महिला आवाज दे रही थी, संभवतः वो उसकी नानी ही थी। आवाज सुनकर वो बच्चा काँप गया और उसकी तरफ जाने लगा। न जाने क्यूँ मैने उसे आवाज लगाई और फिर उसे अपने पास बुलाया तो वो दौङ़कर आया...मैने दो पल उसका चेहरा देखा फिर अपने पास से 2-3 टाफिया निकाल कर उसे दी। वो मुरझाया चेहरा खिल गया.....कितना मासूम होता है न बचपन..2 टॉफी देखकर वो अपने सारे दुख भूल गया। उसने मस्कुराहट के साथ मुझे देखा....और फिर वो चला गया....चला गया अपनी आँखों का दर्द मुझे देकर....

मेरे मन की उलझन......

मेरे मन की जो उलझन है,
वो कोई समझता ही नहीं.....

जिस तूफान में मैं घिरी हूँ,
वो किसी को दिखता ही नहीं....

समुन्दर की लहरे चाहे जितना टकरायें मुझसे
वजूद को मेरे....वो हिला सकती नहीं

चुनौंतियों का सामना मैं किये जा रही हूँ
जो जीवन मिला है उसे जिये जा रही हूँ

गर समाज की नजरों में मैं गलत हूँ
तो ऐसे "समाज" की...मैं परवाह करती नहीं

जो सच हैं वो बोलती हूँ
जो सही है वो करती हूँ

नुकसान अगर होता भी है मुझे कुछ
उस नुकसान से मैं डरती नहीं

ख्वाहिश इतनी है अपने साथ रहे बस
फिर किसी उलझन की मैं फिक्र करती नहीं

मेरे मन की जो उलझन है 
वो कोई समझता ही नहीं....

जिस तूफान में मैं घिरी हूँ
वो किसी को दिखता ही नहीं....




तुम क्यूँ हो परेशान...?

सुबह सवेरे आखें खुले जब,
दिखती है मेरी माँ परेशान,
घर से बाहर जब निकलूं तब,
सामने वाली आंटी परेशान.....
रिक्शे वाले को कहा बस स्टाप चलो,
कितना पैसा मांगू ये सोचके वो परेशान,
बस के अन्दर देखा मैंने,
सीट न मिलने पर एक लड़की परेशान....
दोस्तों से मिली कॉलेज में जब,
पिछला क्या पढाया था याद न होने पर वो परेशान,
टीचर जब आए क्लास में,
कम बच्चे देखके वो परेशान.....
मन में अब सिर्फ़ यही बात आती है,
लगता है आज हर इंसान हैं परेशान,
रोटी-कपड़ा-मकान है भी तो क्या,
कुछ न कुछ कमी ढूंढ कर हो ही जाते है परेशान....
परेशान रहना हमारी आदत बन गई है,
परेशान रहना हमारी फितरत बन चुकी है,
तो अब कोई भी परेशान दिखे तो,
ये न पूछना की "तुम क्यूँ हो परेशान...?"

(दोस्तों आज कल तनाव में रहना काफ़ी आम बात हो गई है...जरा सी बात को लेकर हम कितना परेशान हो जाते है....मेरी ये कविता उन्ही लोगोको समर्पित है जो ज़रूरत से जादा परेशान रहते है और अपनी इस आदत की वज़ह से अपना आज खो रहे है....खुश रहिये जनाब...वरना...वो क्या कहा था शाहरुख़ खान ने....हाँ..."कल हो न हो"......)

हाँ...मैं अलग हूँ।

लोगों के बीच रहकर भी,
अकेली ख़ुद को पाती हूँ,
वो कर देते हैं ख़ुद से जुदा मुझे,
ये कहकर कि मैं अलग हूँ...
जब कुछ बातें चलती हैं परम्पराओ की,
वो...जिन्हें हम सिर्फ़ ढो रहे हैं,
मैं कहती हूँ दफना दो उन्हें,
वो आंखे दिखाकर कहते है कि मैं अलग हू...
उनकी श्रद्घा के आगे
क्या सोना चांदी क्या हीरा है,
मैं देश की ग़रीबी का हवाला देती हूँ
वो चुप करा के कहते हैं कि मैं अलग हूँ...
जब अपने जैसे लोगों के साथ भी,
मैं अजीब सा बर्ताव पाती हूँ,
तब खुदको मैं तसल्ली देती हूँ,
मुस्कुराकर कहती हूँ "हाँ मैं अलग हूँ"।

(पिछली कविता लिखने पर आपने प्रेरित किया दोस्तों इसलिए एक नई कविता आपको समर्पित करती हूँ।)

बातें


बातें अक़्सर किया करते हैं हम


कुछ मीठी तो कुछ कड़वी


बातें अक़्सर बन जाती हैं यादें


कुछ आज की तो कुछ कल की...


कोई दे न दे बातें हमेशा साथ देती हैं


ये ज़रिया है दिल के अरमानों का


जिसमें अक़्सर रात साथ देती है...


बातें किसी प्यारे इन्सान की


बातें किसी ख़ास इन्सान की


बातें हर किस्से कहानी को रंग देती...


मन की उलझन चाहे जीवन की हलचल हो,


बातें सब सुलझा देती है


दिलों को जोड के हर रिश्ते को नया रंग देती है...


बातों ही बातों में ये बातें निकल आई हैं,


गर ध्यान दो इन बातों पर,


तो यही हर जीवन की सच्चाई है...


(दोस्तों मैं बहुत ही ख़ास मौकों पर कवितायें लिखती हूँ और प्रस्तुत कविता मेरी एक बहुत ही ख़ास मित्र की फ़रमाईश पर मैनें लिखी हैं....हाँलाकि ये मेरी पहली कोशिश नही है इससे पहले भी मैं कई बार शब्दों को अपनी कविताओं में पिरो कर प्रताडित कर चुकी हूँ...पर यहाँ पर यही एक नमूना काफ़ी है....उम्मीद है अब मेरी वो ख़ास दोस्त फ़िर कभी ऐसी फ़रमाईश मुझसे नही करेगी....)