मोबाइल में दोस्तों के नाम जमा किये जा रहे है
याद कभी कर पाते नहीं
जब भूला बिसरा कोई दोस्त मिलता है
तो बहाना मारते है
“वक़्त नहीं है”
रिश्तों पर रिश्तें बनाए ही चले जा रहे है
प्यार उसमें कुछ पनपते नहीं
जब माँ बालों पर उंगलिया फेरती है
तो खीजकर कहते है
“वक़्त नहींब है”
बैंक बैलेंस दिनों दिन बङते जा रहे है
खर्च करने का मौक़ा मिलता नहीं
जब ज़रुरतमंद कुछ पैसा मांगता है तब
मुह बनाकर कहते है
“वक़्त नहीं है”
सरकार पर दोष लगाए जा रहे हैं
हमें कोई सुविधा मिलती नहीं
जब वोट डालने की बारी आती है
बिना नज़रें मिलाए कहते है
“वक़्त नहीं है”
आख़िर ये ‘वक़्त’ होता किसलिए है
इसे जीकर याद बनाते क्यूँ नहीं
फिर जब अन्तिम समय आता है
आँखों में आसू लिए पछताकर कहते है
“वक़्त नहीं है”
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4 वर्ष पहले
7 टिप्पणियाँ:
क्या कहूँ तुम्हे अब। बहुत खूब दोस्त। सच में यथार्थ पर आधारित एक सुन्दर अभिव्यक्ति। बहुत खूब शबनम जी। ज़्यादा नहीं कहूँगा...क्योंकि " वक़्त नहीं है"
बहुत खूब....खुशी हुई पढकर।
आख़िर ये ‘वक़्त’ होता किसलिए है
इसे जीकर याद बनाते क्यूँ नहीं
जायज सवाल है
बहुत खूब....जीवन के इस आपाधापी में सचमुच किसी के पास वक़्त नहीं है...
आख़िर ये ‘वक़्त’ होता किसलिए है
इसे जीकर याद बनाते क्यूँ नहीं
बहुत ही खूबसूरत भाव और अभिव्यक्ति
वक्त होता है सिर्फ वक्त नहीं होने के लिए
बेहतरीन!! खूब!!
दिल को नाशाद करके छोङा है
काशी लूटी है क़ाबा तोङा है
इन फ़सादात ने तो भारत की
एकता का लहू निचोङा है
वाह बहुत ही बेहतरीन पंक्तियाँ ......!!
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