हथेली पर नाम तेरा


फ़ुरसत में बैठते ही

ख़्यालों में खो जाती हूँ

हथेली पर नाम लिखती हूँ तेरा

फिर बार बार उसे मिटाती हूँ....

डरती हूँ कोई देख न ले

हाँ मैं बहुत घबराती हूँ..

तुझे इस ज़माने से

हर लम्हा छुपाती हूँ

कभी नज़रे भी फ़ेरती हूँ तुझसे

छुपके फिर आँसू बहाती हूँ

तेरे निराश होने पर

रूठ के चले जाने पर

कुछ दूर तक पीछा करते हुए

मैं साथ चली आती हूँ..

फिर देखती हूँ

कुछ नज़रों को

जो मुझे घूरने लगती है

बस

वही मेरी हद है

वहीं मैं रुक जाती हूँ...

दिल रोता है मेरा

होठों से मुस्कुराती हूँ...

पलटती हूँ

उन नज़रों का सामना करती हूँ

उनके सामने जाकर

हँसती हूँ खिलखिलाती हूँ

उन्हें यकीन दिला के कुछ

वापस चली आती हूँ...

ढूढंती हूँ तनहाई फिर

किसी कोने में छिप जाती हूँ

इस दुनिया की नज़रों से

दूर चली जाती हूँ...

फिर से सिलसिला शुरू करती हूँ

तेरा नाम हथेली पर अपनी

लिखती हूँ मिटाती हूँ....

शुक्रिया डीटीसी...

आज कॉलेज से वापस आते वक़्त अंधेरा होने लगा था..बस स्टॉप पर खङी बस का इंतज़ार करने लगी..इस वक़्त बसों में बङी भीङ होती है..पर...जाना तो पङता है..आज थकान भी बहुत थी सोच रही थी कैसे भी करके बस एक सीट का जुगाङ हो जाए...खङे होकर जाने की हिम्मत नहीं थी..सोच ही रही थी कि दूर से एक डीटीसी बस आते दिखी...पर समझ नहीं आ रहा था कि कौन से रूट की है..करीब आई तो देखा उसपर लिखा था केवल महिलाएँ बस का नं. था 307...

देखते ही दो दिन पहले के अख़बार की वो ख़बर याद आ गई जिसमें लिखा था डीटीसी बस छह रूट पर अपनी लेडीज़ स्पेशल बस चलाना शुरू कर रही है..बस फिर क्या था..मैं झट से चङ गई अपनी बस में...।

अन्दर का सीन भी मज़ेदार था..केवल 8-10 लेडीज़ बैठी थी..सबके चहरे खिले हुए थे..हँस-मुस्कुरा रही थी...और सङक पर बसों के इन्तेज़ार में खङे पुरुष यात्री बङी ललचाई नज़रों से अपने सामने से खाली जाती हमारी लेडीज़ स्पेशल को देख रहे थे कुछ जो चङने की कोशिश कर रहे थे कंडक्टर उन्हें फ़टकार लगाने से भी नहीं चूक रहा था दिखाई नहीं देता ये केवल महिलाओं के लिए है..

मैं भी कुछ कम खुश नहीं थी जैसे नोबल पुरस्कार मिल गया हो..रोज़ बसों में सफ़र करने वाली मेरी तरह लेडीज़ को कितनी ही दिक्कतों का सामना करना पङता है..और छेङछाङ तो आम है..ऐसे में डीटीसी का यह कदम हमारे लिए एक खूबसूरत तोहफ़े से कम नही..पूरे रास्ते मन ही मन यही कहती रही शुक्रिया डीटीसी

वरना जीते जी मर जाएगा...

आज बीत जाएगा
फिर कल आ जाएगा
तू सोच रहा है
कि तू क्या पाएगा
नफ़ा प्यारा है तुझे
गर नुकसान हो जाएगा
ये चिन्ता होगी तुझे
कल क्या खाएगा
ये सोचते सोचते
जो आज हाथ में है तेरे
वो पल जीने का
तुझसे छिन जाएगा
अरे बंधु
ये जीवन है
सौदा नहीं व्यापार नहीं
तो छोङ
नापना और तोलना
वरना जीते जी मर जाएगा

तेरा इन्तज़ार


कुछ कहे बिन जब तू जुदा होगा
वो इन्तज़ार भी तेरा क्या होगा
अकेली तनहा याद करूँगी तुझे
प्यार मेरा तब भी बेपनाह होगा

हिज्र की रातों को जागा करूँगी
हर लम्हा मेरा बस तेरा होगा
फुर्सत क्या मसरुफियत क्या
ख़्यालो पर हक़ सिर्फ तेरा होगा

ज़माने की ठोकरे खाकर भी
लब पर सिर्फ तेरा फ़साना होगा
जो वादे तूने किये भी न थे
उसे तब मुझे निभाना होगा

तेरी मुहब्बत तेरी उस चाहत का
कर्ज़ मुझे चुकाना ही होगा
कुछ कहे बिन जब तू जुदा होगा
वो इन्तज़ार भी तेरा क्या होगा

ख़ामोशी


शेर अर्ज़ है...

ख़ामोश रहना हमारा
अन्दाज़-ए-बयां है
इसी तरह हम अपनी
हर बात कह जाते है...

नज़्म पेश है...

ये ख़ामोशी
कुछ कहती है
चुपके से धीमे से
हर लफ़्ज़ चुरा लेती है
होठ सी देती है
ये ख़ामोशी
कुछ कहती है....

ये ख़ामोशी
क्यूँ रहती है
किसी के कुछ कहने पर
ये मुझे घेर लेती है
वक़्त फेर देती है
ये ख़ामोशी
क्यूँ रहती है...

अन्जाम-ए-मौहोब्बत


होठो की मुस्कुराहट
दिल में न उतर पायी
तुझे खुद से दूर कर दिया
पर खुद दूर न हो पाई....

ये कैसा इम्तेहा है
ये कैसी मजबूरियाँ
सब कुछ कह दिया
पर कुछ भी न कह पायी

अंधेरो में तलाशा तुझे
उजाले मैं कर न पायी
आँखों की नमी को
सबसे छुपाती चली आयी

अन्जाम-ए-मौहोब्बत क्या था
सिर्फ दर्द और तनहाई
हर लम्हा इस दिल को
तेरी ही याद आयी.....

आईना और मेरा अक़्स

धखुली सी आँखें

खुद को ढूँढती है आईने में

फिर अक़्स देखकर अपना

कुछ खुल सी जाती है

सूरत देखकर अपनी

आईने से कहती है आँखें

तू कर रहा ग़ुस्ताखी है

ये मैं नहीं....

मेरी पहचान ये नहीं है

ऐ आईने मुझे दिखा

मेरा अक़्स खुद का

आईना मुस्कुराया...

कहने लगा

देखो ग़ौर करके

ये तुम ही तो हो

बस फर्क इतना है

कि तुम बदल गई हो

कल तुम सच थी

आज तुम दिखावा हो

कल कुछ सपने थे आँखों में

जो आज भुला दिए है तुमने

ज़िन्दगी की दौङ में

खुद को खो आई कहीं

तेरी पहचान तेरी सूरत नहीं

उम्मीदों से भरी चमकदार आँखे थी

जिनसे तू मुझमें

अपना अक़्स देखा करती थी

जा जाके नए ख़्वाब सजा

उम्मीदें लगा कुछ नई

तब खुदकी सूरत में तू

हमेशा खुद को ही पाएगी...

क्या वो है.....?

वो ऐसी आग जिसमें धुआँ नहीं..

एक ऐसा हादसा जो कभी हुआ नहीं..

एक ऐसी नदी जिसका किनारा नही..

एक ऐसा भँवरा जो आवारा नही..


वो ऐसी पहेली जिसका जवाब नहीं..

एक ऐसी कहानी जिसका अन्त नहीं..

एक ऐसी ग़ज़ल जिसमें जज़्बात नहीं..

एक ऐसी किताब जिसमें अक्षर नही..


वो ऐसी नींद जिसमें ख्वाब नहीं..

एक ऐसा दिन जिसकी रात नही.

एक ऐसी मौहब्बत जिसमें अहसास नहीं

एक ऐसा रेगिस्तान जिसे प्यास नहीं


वो सिर्फ एक भ्रम है कोई हक़ीकत नहीं

क्या वो है या है ही नहीं?