एक पुरुष की अनकही

तुम,
मेरे अस्तित्व को
खुदके अस्तित्व पर ओढ़े...
समेटे अपनी इच्छाओ को
मेरी इच्छाओ में...
हिस्सा बन गयी हो
मेरे जीवन का...
सदा मुस्कुराती तुम,
कभी-कभी
इतराती भी हो,
तुम्हे मेरे साथ का
कुछ घमंड सा हो चला है...
पर सच कहूँ
ये घमंड तुम्हारा
मुझे मेरे
सम्पूर्ण होने का
एहसास
दिलाता है,
तुम पर अपना
मालिकाना हक
समझने लगा हूँ...
तुम मुझे मेरी
संपत्ति सी लगती हो,
चाहता हूँ,
मेरी पकड़ तुमपर
हमेशा बनी रहे,
तुम बनके मेरी रहो
जन्मों के लिए...
कुछ तो हो
जो केवल मेरा हो,
चाहे फिर मैं
किसी और का भी हो जाऊ...
जानता हूँ
तुम कुछ न कहोगी
मेरे साये में
ऐसे ही
जीती रहोगी,
न मैं रहूँ संग तो
खुद की नियति को रोओगी...
बस
तुम्हारा यही हाल
मैं देख नहीं पाउँगा...
इसलिए,
तुम्हे संग रखूँगा
लेकिन सुनो
तुम्हारे संग न रह पाउँगा...
(यह कविता मेरे बाबूजी 'राहुल' और गुरुमाता 'फौजिया रियाज़' को समर्पित है...)

'मैं'


वो कहीं जाना चाहती है
मैं कहीं...
वो अपनी चलाती है
मैं अपनी...
मेरी बातें उसे समझ नहीं आती
और मैं उसके तर्क नकार नहीं पाती...
हम दोनों की तकरार
इन दिनों बढती जा रही है
वो मुझे समझ नहीं पा रही
मैं उससे तंग आ चुकी हूँ..
लेकिन फिर भी
वो मेरा साथ छोड़ने को तैयार नहीं
और मैं भी मजबूर हूँ..
हम न चाहते हुए भी
एक दूसरे के साथ रह रहें है
कोशिशे कर रहें है
कि एक दूसरे को अनजान रखे
अपनी अपनी सोच से..
क्यूंकि उसकी चाहत
मैं पूरी नहीं कर सकती
और
मेरी चाहतो को
वो झूठा कहती है
वो मेरे अंदर की "मैं" है...
जो मुझसे दूर रहती है...


संबोधन


पत्र के अंत में
लिखा शब्द
'तुम्हारा'
जोड़ देता है
एक क्षण के लिए
मुझे तुमसे
लेकिन
अगले ही क्षण
यह संबोधन
बन जाता है
सवाल
कितना और
किस हद तक 'तुम्हारा'?
वास्तव में
स्वयं में सम्पूर्ण
यह शब्द
लाचार है
अपनी ही
अभिव्यक्ति में...

स्पर्श की भाषा


अक्षर गढ़ती
यह कलम
सुन पाती अगर
मन की आवाज़
तो और भी
संवेदनाये होती
इन पंक्तियों में
लेकिन
यह ठहरी निर्जीव
निर्भर
उंगलियों पर
समझती है यह केवल
स्पर्श की भाषा
(शबनम खान)

भ्रम


ऐसा तो नहीं था
कि तुम
कोई भ्रम थे मेरा
कोरी कल्पना से जन्मे
कोई अनचाहे एहसास थे
फिर क्यूँ
जब हाथ बढाकर
तुम्हे छूना चाहा
तो तुम
अदृश्य हो गए
और रह गया
केवल शून्य
जो मुस्कुरा रहा था
उस निर्णय पर
कि जिसमे तुम्हें
अनंत समझा था....
-शबनम खान