तेरी सासों में क़ैद, मेरे लम्हे


वो लम्हे
तेरी सांसों में क़ैद
जो मेरे थे
सिर्फ मेरे,
जिनमें नहीं थी
मसरूफियत ज़माने की
रोज़ी-रोटी कमाने की
और
जिसमें नहीं थी
कोई रस्म दिखावे की,
कहां गुम गए
सभी, एकदम से
एकसाथ..
क्या सच है
बुज़ुर्गो की वो बात
जो कहते हैं
कुछ मिल जाने के बाद
उसकी चाह
होने लगती है ख़त्म,
या फिर
ये एक वहम ही है
जैसा
हमेशा कहते हो तुम
लेकिन फिर भी,
मैं अक्सर
दिन के किसी उदास पल में
उन लम्हों को
याद करती हूं
जो मेरे थे
सिर्फ मेरे
तुम्हारी सांसों में क़ैद
मेरे लम्हें..!




शानदार रही श्रीदेवी की वापसी : इंग्लिश विंग्लिश



17 सालों के लंबे वक़्त के बाद अपने ज़माने की बेहतरीन अदाकारा जब परदे पर वापसी करती है तो उसके साथ दर्शकों की ढेरों उम्मीदें जुड़ी होना लाज़मी हो जाता है। मिस्टर इंडिया, चांदनी और चालबाज़ जैसी कईं फिल्मों में अपने एक ख़ास किस्म के अभिनए, ख़ूबसूरती और चंचल अदाओं के लिए याद किए जाने वाली श्रीदेवी ने हाल ही में गौरी शिंदे के निर्देशन में बनी फ़िल्म इंग्लिश-विंग्लिश से फिल्मों में वापसी की है। हालांकि वह पहली अदाकारा नहीं हैं जिसने एक लंबे वक़्त के बाद फिल्मों में कमबैक किया है। इस फहरिस्त में माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर, डिंपल कपाड़ियां भी शामिल हैं। लेकिन कहीं न कहीं वे सभी दर्शकों की उम्मीदों पर उतनी खरी नहीं उतर सकी जितनी श्रीदेवी उतरती दिखाई पड़ी हैं।

कुछ यूं हैं कहानी

एक गृहिणी शशि गोडबोले (श्रीदेवी) अपनी छोटी सी दुनिया में ख़ुश तो हैं लेकिन अंग्रेज़ी न बोल पाने की टीस हमेशा उसके मन में रहती है। स्वादिष्ट लड्डू बनाने का घरेलू बिज़नेस कर वो अपने क्लाइंट्स को तो ख़ुश रख लेती है लेकिन अंग्रेज़ी न बोल-समझ पाने के कारण अपनी बेटी की शर्मिंदगी का कारण बनती है। अंग्रेज़ी के ग़लत उच्चारण, भाषा को समझ न पाने और टूटी-फूटी ग़लत अंग्रेज़ी बोलने के कारण उसके बच्चे और पति अक़्सर उसका मज़ाक बनाते हैं और वो इस बात से घुटती रहती है। शशि की ज़िंदगी में मोड़ तब आता है जब अपनी भांजी की शादी में शामिल होने के लिए वह अकेली अमेरिका जाती है। एक ऐसे देश में जहां अंग्रेज़ी बोली समझी जाती है, श्रीदेवी को बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और उसे अंग्रेज़ी न आना और ज़्यादा परेशान करने लग जाता है। ऐसे वक़्त में शशि तय करती है कि अब वो अपनी पहचान खुद बनाएंगी और अंग्रेजी भाषा सीख कर रहेंगी। चार हफ्तों में वो इंग्लिश लर्निंग क्लासेज़ जॉइन करके, न केवल अपनी लगन से वह अंग्रेज़ी बोलना सीख जाती हैं बल्कि अपने क्लास के दूसरे लोगों से लगातार तारीफ मिलने के कारण अपने आपको आत्मविश्वास से भरा पाती हैं। अंत में जब शशि के परिवार वालों के सामने उसका ये राज़ खुलता है तो सब हैरान रह जाते हैं।

फिल्म की रूह हैं ये सीन

हालांकि फिल्म दर्शकों को शुरू से आख़िर तक अपने साथ बांधे रखती है लेकिन कुछ सीन इतने ख़ास बन पड़े हैं कि दर्शक सिनेमा हॉल से बाहर निकलकर भी उन्हें अपने साथ ले जाते हैं। खाने की मेज़ पर अपने क़ामयाब पति और दो बच्चों के सामने अंग्रेज़ी का ग़लत उच्चारण करने पर शशि का शर्मिंदा और उदास हो जाना, कहीं न कहीं दर्शकों के दिल में भी दर्द पैदा कर देता है। वहीं एक दूसरे सीन में  घबराई हुई शशि जब अपनी 12-13 साल की बेटी की पैरेंट्स-टीचर मीटिंग में जाती है तो किस तरह वो अंग्रेज़ी में बात कर रहे उसके टीचर की बात मुश्किल से समझती है और फिर अपनी नाराज़ बेटी के तल्ख़ रूख का सामना करती है। एक इसी तरह का वाकया तब पेश आजा है जब अमेरिका में शशि एक फूड जॉइंट में जाती है और अंग्रेज़ी न जान पाने के कारण बुरी तरह घबरा जाती हैं। वो सीन देखते हुए दर्शकों को अपनी आंखों में भी वैसी ही नमी महसूस होने लगती है जैसी शशि की आंखों में दिखती है। फिल्म का एक और पहलू जो हल्के से दर्शकों के दिलों को गुदगुदाता है, वो उसकी क्लास में पढ़ने वाले फ्रांसीसी पुरूष का शशि के प्रति आकर्षण हैं। दोनों एक दूसरे की भाषा न समझने के बावजूद कैसे एक-दूसरे की बात समझने की कोशिश करते हैं, वो सीन फिल्म में जान डाल देते हैं। फिल्म के आख़िरी सीन में अपनी भांजी की शादी के बाद जब शशि सबको संबोधित करके अंग्रेज़ी में भाषण देती हैं तो उनके साथ-साथ दर्शकों को भी महसूस होने लगता है कि जैसे सच में उन्होंने ही कोई बाज़ी मार ली है। भारतीय मध्यम वर्गीय परिवार जिसके बड़े-बुज़ुर्ग अपने बच्चों और सोसायटी का साथ बनाने के लिए अंग्रेज़ी से जूझ रहे हैं, वो अपने आपको इस फिल्म से जुड़ा हुआ पाते हैं।

कहीं कम कहीं ज़्यादा

गौरी शिंदे के निर्देशन में बनी ये पहली फिल्म बहुत सीधी और ईमानदार है, इसको ज़बरदस्ती टेढ़ा नहीं बनाया गया। फिल्म देखने के दौरान ये महसूस होता है कि ज़रूरत के दृश्यों को ही फिल्म में डाला गया है और ज़बरदस्ती की चमक-दमक दिखाने से परहेज़ किया गया है। न्यूयॉर्क की चमकती सकड़ों की बजाए फोकस रिश्तों और इंसान के जज़्बातों पर किया गया है। गौरी का निर्देशन इसलिए क़ाबिले तारीफ़ है क्योंकि उन्होंने बहुत सधे ढंग से फिल्म का ट्रीटमेंट किया है जिससे फिल्म कहीं नहीं बिखरती। फिल्म में अमिताभ बच्चन मेहमान भूमिका में नज़र तो आए लेकिन कुछ खास असर नहीं छोड़ पाए। सीधे लफ़्ज़ों में कहें तो अगर ये सीन फिल्म में नहीं होते तब भी चलता।

फिल्म का कमज़ोर पहलू उसका संगीत है। हमारे देश में दर्शक का बड़ा वर्ग वो है जिसे सिर्फ अच्छे संगीत के दम पर ही सिमेला हॉल तक ख़ीचा जा सकता है, लेकिन संगीतकार अमित त्रिवेदी और गीतकार स्वानद किरकिरे यहां कमज़ोर दिखे। फिल्म में टाइटल सॉन्ग समेत कोई ऐसा गाना नहीं है जिसे गुनगुनाते हुए दर्शक हॉल में घुसे या बाहर निकले। इस पर और ध्यान दिया जाता तो फिल्म का संगीत पक्ष भी अच्छा हो सकने की गुंजाइश थी। इसके अलावा, फिल्म कहीं कहीं कंफ्यूज़ भी दिखाई देती है कि असल में उसका विषय इंग्लिश भाषा की अनिवार्यता है या एक महिला का आत्मसम्मान।

बहरहाल, ईमानदारी से कहा जाए तो फिल्म की कहानी में कोई ताज़ापन नहीं है जो चीज़ ख़ास है वो ये कि श्रीदेवी ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। श्रीदेवी की इस वापसी को शानदार और ज़बरदस्त वापसी की बजाए जानदार वापसी कहा जाए तो बेहतर होगा। वहीं गौरी शिंदे की भी इस बात की तारीफ़ की जानी चाहिएं कि उन्होंने श्रीदेवी को फिल्म की जान बना दिया। जहां श्रीदेवी पर्दे पर हिट साबित हुईं हैं वहीं गौरी ने पर्दे के पीछे रहकर बतौर निर्देशक अपने आपको इस फिल्म इंडस्ट्री में टिके रहने के क़ाबिल बताया है। फिल्म देखने के बाद दर्शकों को श्रीदेवी की अगली फ़िल्म का इंतज़ार ज़रूर रहेगा।





तुम्हारा प्रेम पत्र



कल ही मिला
किताब में छुपा हुआ था,
नहीं
रखकर भूली नहीं थी
दरअसल,
छुपाने के लिए
किसी जगह की तलाश
वहीं ख़त्म हुई थी,
बदनसीब था
मेरा पहला प्रेम पत्र भी
किस किस से छुपता रहा
वक्त की धूल ने
पीला सा कर दिया है कुछ
नहीं, मुझे याद है
जब दिया था तुमने
उजला सा था
हमारे प्रेम की तरह
और हां
उसमें महक भी थी
तुम्हारी,
शब्द इसके कुछ
धुंधले से पड़ गए हैं
पर यकीन मानो
वो एहसास अभी भी साफ हैं
बहते पानी से
एकदम साफ,
देखो न
समय कितना बदल गया है
अब तुम नहीं रहे
मेरे साथ
अब मैं हो चुकी हूं
किसी और की
लेकिन
फिर भी
एक चीज़ नहीं बदली है
वो प्रेम-पत्र तुम्हारा
आज भी मजबूर है
छुपकर रहता है
किताब के पन्नो में कहीं।




'काश..' के बाद की दुनिया

एक काश... के बाद
होती है अलग ही दुनिया
वो दुनिया
जिसकी हमे ख्वाहिश है,
जिसकी शक़्ल
इस तरफ की दुनिया से
कुछ अलग है,
कुछ ज़्यादा खूबसूरत
किसी नूर से सजी हुई,
लेकिन,
मुझे लगता है अक़्सर
वो दुनिया,
जो अक़्स है ख्वाबों का मेरे
क्यों काश... ने बेईमानी कर
अलग कर दी है मुझसे,
वो काश... के बाद की
ख़्वाबों वाली दुनिया।

रिश्तों को ज़मीन पर उतरना ही होता है, चाहें शुरू कहीं से हो..!



वो एक दूसरे से नहीं, एक दूसरे के ख़्यालों से मिले थे पहली दफे। इसकी दुश्वारियां उसने महसूस की थी और उसकी तनहाईयों में ये शामिल हो गया था। वो दोनों अपनी अपनी ज़िंदगियों में बेहद मसरूफ थे बावजूद इसके, एक दूसरे के आज और कल में अक्सर झांकते रहते थे। इसके एक लाइन के स्टेटस से वो हज़ारों बातें समझने लगा था और उसकी लिखी नज़्मों से वो उसे पढ़ने लगी थी। ये दोनों जानते भी नहीं थे, कि जानपहचान किस कदर बढ़ने लगी थी। 

लिखावट के सिलसिले लिखावट पर ही नहीं रहे, अपनी अपनी आवाज़ें भेजी गईं, गुनगुनाहटें भेजी गईं। लेकिन ये आवाज़ें वक्त से बंधकर आई थीं, किसी एक ख़ास लम्हें में कैद की गई आवाज़ें। अब ये आवाज़ों का रिश्ता हो चला था। अब हसी मुस्कुराहटें खिलखिलाहट सुनी जाने लगीं एक दूसरे की। कईं सारी बातें, जिनमें ज़िंदगी के फलसफे थे, वो एक दूसरे से किया करते थे और अब तो साथ गुनगुना भी लिया करते थे। इसकी आदत थी, गाने गाते गाते बोल भूल जाने की, और उसकी आदत थी बीच बीच में याद दिलाने की.. ऐसे कई गाने पूरे होने लगे। 

और फिर.. उन दोनों का आमना सामना हुआ। कई महीनों की अनदेखी मुलाक़ातों को नज़र मिल गई। अक्सर जैसा होता है, पहली बार मिलने पर कुछ कहना कुछ पूछना मुश्किल सा लगता है, इनके बीच नहीं हुआ। आज हज़ारों किस्से-अफसाने एक दूसरे ने कहे सुने, और कुछ हद तक समझे भी। आज एक की मुस्कुराहट दूसरे के चेहरे पर उतर आई। आज कईं धूल खाई यादों को झाड़ा गया चमकाया गया, एक दूसरे के सामने रखा गया। एक लम्बे वक़्त बाद आज, एक अधूरी मुलाक़ात मुक़म्मल हो गई थी।

बात सच ही है, रिश्तों को ज़मीन पर उतरना ही होता है, चाहें शुरू कहीं से हो..!

(शबनम ख़ान)