अधूरी ज़िन्दगी

हर खुशी से महरुम है

ये ज़िन्दगी अब मेरी

कि तेरे बिन अधूरी है

ज़िन्दगी अब मेरी

न सुबह की ता़ज़ग़ी न रात की ठंडक

रूठी हुई है मुझसे ज़िन्दग़ी अब मेरी

है राहों में अब अंधेरा ही अंधेरा

ढूंढती है बस तुझे ही निगाहे अब मेरी

हौसले बढ़ाने को तो सब है मेरे पास

बस नहीं है तो खुद की उम्मीदें अब मेरी

बहुत हक़ से प्यार किया है

पर तुझे कदर कहाँ है मेरी

तू तो मुझे जानता भी नहीं है

फिर कैसे कहूँ तुझे तू ज़िन्दग़ी है मेरी

हर खुशी से महरुम है

ये ज़िन्दगी़ अब मेरी

कि तेरे बिन अधूरी है

ये ज़िन्दग़ी अब मेरी

मेरे लफ़्ज़

लफ़्ज़ों को रौशनाई का साथ दे दूँ गर

कोई काग़ज़ ऐसा मिल जाए

शब के अंधेरों में भी जिसमें

सब कुछ नज़र आए

तब वो भी पढ़ पाएंगे मेरे इन जज़्बातों को

गर उनके पास मेरे लिए

पल दो पल का वक़्त निकल आए...

कश-म-कश


कश-म-कश है मन में

चल रही है हर पल

खुद से पूछती हूँ सवाल कुछ

जानना चाहती हूँ खुद को

कौन हूँ मैं क्या मक़सद है मेरा

ज़िन्दगी को कहा ले जा रही हूँ

अपनी उम्मीदें पूरी कर रही हूँ या

अपनों को दिलासा दे रही हूँ

ठहर सी गई है ज़िन्दगी मेरी

कुछ फैसलों की ज़रुरत है अब

क्या करुँ कौन सी राह चुनु

जवाब ये ढूँढ रही हूँ

कश-म-कश है मन में

चल रही है हर पल

भाषा बङी या भावनाएँ?


एक शोर सुनकर आज लिखने पर मजबूर हो गई हूँ।हर तरफ से भाषाओ की लङाई का शोर सुन रही हूँ।कोई हिन्दी का घोर समर्थक है तो कोई अंग्रेज़ी भाषा को अनिवार्य मानता है कुछ उर्दू,अरबी,संस्कृत जैसी भाषाओं को लुप्त होने से बचाने के लिए चिल्ला रहा है कोई क्षेत्रीय भाषाओ के पीछे दीवाना हुआ जा रहा है तो कोई विदेशी भाषा को सीखने का नया फैशन अपना रहा है।ये बातें मेरे मन में हलचल पैदा कर रही है।मन में बार बार ये सवाल उठ रहा है भाषा बङी है या भावनाएँ? भाषा का तो यही मक़सद है न कि हम एक दूसरे की भावनाओं को समझ व समझा सके।ये मक़सद तो हर भाषा में पूरा हो सकता है।ये भी ज़रूरी नहीं कि भाषा का सर्वोच्च व शुद्घ रूप का ही प्रयोग किया जाए।टूटी-फूटी और मिश्रित भाषा के प्रयोग से भी तो काम चलाया जा सकता है न.. अगर विचार अच्छे हो तो वो हर भाषा में ही अच्छे लगेंगे।हांलाकि मैं जानती हूँ कि भाषा किसी भी सभ्यता का एक अभिन्न अंग होती है पर वह केवल एक अंग मात्र है उसके लिए समस्त सभ्यता को प्रताङित नहीं किया जा सकता।

तो मित्रों,भाषाओ की इन चिन्ताओ और लङाई में बङा सीधा सा पक्ष है मेरा कि भावनाएँ भाषा से ज़्यादा महत्वपूर्ण है।भाषा की लङाई में कहीं हम भावनाओं को दरकिनार कर रहे है।आप लोगो के पक्ष भी ज़रूर जानना चाहूँगी।

तब मैं डर सी जाती हूँ

किसी बात पर बिगङना तेरा

कभी यूँ ही ख़ामोश हो जाना

किस्मत को अपनी कोसते रहना

कुछ कङवी यादों को भूलने के लिए तङप उठना


ऐसे ही जब तू निराश हो जाता है

तब मैं डर सी जाती हूँ


किसी दिन तेरा परेशान होना

कभी तेरा किसी बात पर रुठ जाना

खुदमें कमियों को तलाशते रहना

कुछ रिश्तों पर तोहमतें लगाना


ऐसे ही जब तू गुस्सा हो जाता है

तब मैं डर सी जाती हूँ


किसी बात पर तेरी ज़ुबान लङखङाना

दबी हुई आवाज़ में तेरा रोना

कभी तुझे तुझ से ही हारते देखना

टूट रहे तेरे सपनों की आवाज़े सुनना


ऐसे ही जब तू ज़िन्दगी से हार जाता है

तब मैं डर सी जाती हूँ


किसी दिन हाथ पकङके मेरा

मेरी आँखों में आँखें डालना तेरा

फिर मुझसे बार बार पूछना तेरा

क्यूँ डर लगता है तुम्हें इतना?”


ऐसे ही जब तू सवाल पूछता है

तब मैं डर सी जाती हू


मैं एक आम इन्सान हूँ

अपने दुख दर्दों से परेशान हूँ

देखके दुनिया का तमाशा हैरान हूँ

मुझे पहचान लो दोस्तों

मैं एक आम इन्सान हूँ



मंहगाई की मार झेल रहा हूँ

ज़िन्दगी को किसी तरह ढकेल रहा हूँ

मुझे पहचान लो दोस्तों

मैं एक आम इन्सान हूँ



घर से बाहर निकल मैं डर रहा हूँ

अपने जान माल की चिन्ता मैं कर रहा हूँ

मुझे पहचान लो दोस्तों

मैं एक आम इन्सान हूँ



ट्रैफिक से भरी सङके देख रहा हूँ

नैनो लूंगा अपनी फिर भी ये फेक रहा हूँ

मुझे पहचान लो दोस्तों

मैं एक आम इन्सान हूँ



अस्तित्व देश के अन्दर ही खोए जा रहा हूँ

भाषाओं की लङाई में मौन रोए जा रहा हूँ

मुझे पहचान लो दोस्तों

मैं एक आम इन्सान हूँ



आम बनके इस दुनिया में आया हूँ

ख़ास बनने की आस लिए ही जिए जा रहा हूँ

मुझे पहचान लो दोस्तों

मैं एक आम इन्सान हूँ

काश

आज अपनी यादों को ताज़ा करने बैठी तो स्कूल की एक मैगज़ीन सामने आई..उसमें एक कविता लिखी थी “काश”...
उसको आप सब के साथ शेयर कर रही हूँ..इसमें आपको मेरा बचपना, एक छोटे बच्चे की चिन्ता और जन्म लेती कुछ उम्मीदें भी नज़र आएंगी...

काश मैं एक नई दुनिया बसा पाती
जो कमी है इस जहाँ में
उसको दूर कर पाती,
करप्शन और ग़रीबी को मैं हटाती,
दुख तक़लीफ दूर करके खुशियाँ फैलाती,
जो बिछङ गए है अपनों से,
उन्हें फिर पास ले आती
भटके हुओ को सही राह दिखलाती
सबके दिलों में आपसी नफ़रत को मिटाती
प्रेम-अनुराग के दिये हर जगह जलाती
कुछ न बनके भी कुछ ख़ास बनके मैं दिखाती
काश मैं एक नई दुनिया बसा पाती...

फिर भी मेरा देश महान

हम अपने आपको अत्यन्त गर्व के साथ एक "महान" देश का एक "महान " निवासी" कहते है (और शायद समझते भी है)...और समझे भी क्यूँ ...अरे महानता तो हमारे देश की प्रकृति में है...हमारे अंग-अंग में महानता बसी हुई है...महान धर्म.......महान संस्कृति........ढेरो महापुरुष....

हम भारतीयों से ज़्यादा धार्मिक तो पुरे विश्व में और हो ही नही सकता ...अपना समस्त जीवन हम लोग इसी धर्म की आड़ में बिता सकते है.सबसे विशेष (संभवता महान) बात तो यह है की यहाँ के हर इंसान के लिए धर्म का अपना अलग ही मतलब है ...अरे ऐसे ही थोडी ये देश धार्मिक विविधता पाई जाती है...किसीकी रोज़ी-रोटी धर्म है....तो किसीका "टाइम-पास" है धर्म...अजी धर्म सम्प्रदायों के नाम पर तो यहाँ लोग अपना (कई बार दूसरो का भी) जीवन समाप्त कर लेते है...अपने धर्म को पढ़े समझे बिना ही यहाँ का हर एक इन्सान धार्मिक विषयों पर लम्बे चौङे व्याख्यान दे सकता है।बताओ होगा कोई हमारी तरह अन्तर्यामी? तो इस तरह हुए न हम और हमारे धर्म महान..

संस्कृति..वो तो हमारी आन-बान-शान है।अपनी संस्कृति पर हमें जितना गर्व है मजाल है किसी अन्य देश को हो।हमारी संस्कृति पर कोई एक आँख उठाकर देखे तो सही..तलवारे निकल जाएंगी साहब..आग लगा दी जाएगी..भले ही उससे हमारी संस्कृति को ही नुकसान पहुँच जाए..पर ऐसी ही अपनी नाक थोङी न कटने देंगे।अरे अब यही तो है हमारी संस्कृति..हर बुरे काम करके भी नाक ऊँची करके चलना।होगी इससे महान कोई संस्कृति भला..

जहाँ तक बात रही महापुरूषों की तो उसका तो हमारा देश गढ़ है।अरे नहीं मैं मजा़क नहीं कर रही।यकीन कीजिए।अगर नहीं हो रहा हो तो हमारे देश का इतिहास ही देख लीजिए।अवश्य आपका सामना ऐसे महापुरूषों से हो जाएगा।तब तो आपको मेरी बात माननी ही पङेगी।कोई भी कांड कर दो..उसको साम्प्रदायिक रंग में रंग दो..फिर देखो कैसे बनते हो महापुरूष..अरे इतिहास(बरबादी का) के पन्नों पर सुनहरे अक्षरों से नाम लिखा जाएगा आपका।हो सकता है ऐसा किसी अन्य देश में भला..

तो हुआ न हमारा देश महान..अरे माथे पर बल न डालो जनाब।हाँ छोटी-मोटी परेशानियां जैसे ग़रीबी,बेरोज़गारी,साम्प्रदायिकता,अशिक्षा,बिमारियां,उग्रवाद,आतंकवाद आदि ज़रुर है..तो क्या..भला ये छोटी-मोटी परेशानियां हमारे देश को महान होने से रोक सकती है..??? अरे जाइये आप कुछ भी कहिये..इतनी सारी बुराईयां और कमियां है तो क्या,मैं तो फिर भी कहूँगी कि मेरा देश है महान

(मित्रों जानती हूँ कि मेरा ये लेखआपमें से कुछ लोगों की भावनाको ठेस पहुँचाएगा..उसके लिएमाफ कीजिएगा..पर जो देख रहीहूँ..महसूस कर रही हूँ..उसे लिखनेसे खुद को रोक नहीं सकती।)

हमारा वतन


जन्नत का नमूना था हमारा वतन मगर
गंदी सियासत ने जहन्नम बना दिया

दिल को नाशाद करके छोङा है
काशी लूटी है क़ाबा तोङा है
इन फ़सादात ने तो भारत की
एकता का लहू निचोङा है

वक़्त नहीं है....

मोबाइल में दोस्तों के नाम जमा किये जा रहे है
याद कभी कर पाते नहीं
जब भूला बिसरा कोई दोस्त मिलता है
तो बहाना मारते है
“वक़्त नहीं है”

रिश्तों पर रिश्तें बनाए ही चले जा रहे है
प्यार उसमें कुछ पनपते नहीं
जब माँ बालों पर उंगलिया फेरती है
तो खीजकर कहते है
“वक़्त नहींब है”

बैंक बैलेंस दिनों दिन बङते जा रहे है
खर्च करने का मौक़ा मिलता नहीं
जब ज़रुरतमंद कुछ पैसा मांगता है तब
मुह बनाकर कहते है
“वक़्त नहीं है”

सरकार पर दोष लगाए जा रहे हैं
हमें कोई सुविधा मिलती नहीं
जब वोट डालने की बारी आती है
बिना नज़रें मिलाए कहते है
“वक़्त नहीं है”

आख़िर ये ‘वक़्त’ होता किसलिए है
इसे जीकर याद बनाते क्यूँ नहीं
फिर जब अन्तिम समय आता है
आँखों में आसू लिए पछताकर कहते है
“वक़्त नहीं है”

मैं खुशी हूँ...

मैं खुशी हूँ...

इस भागती दौङती ज़िन्दगी में
राहत की सांस हूँ
किसी से दूर किसी के पास
मैं खुशी हूँ...

इन्सान की चाहत हूँ मैं
एक खूबसूरत अहसास हूँ
महसूस करते हो कभी –कभी मुझे
मैं खुशी हूँ...

कभी दिल में घर करती हूँ
कभी चेहरे पर दिखती हूँ
हसरत है मेरी सबको
मैं खुशी हूँ...

हर दुआ में मुझे माँगते हो
साथ ज़िन्दगी भर चाहते हो
पर पाकर मुझे भूल जाते हैं
मैं खुशी हूँ...

आशियाना कोई नहीं है मेरा
कभी यहाँ तो कभी वहाँ रहती हूँ
आँखे बंद करो और महसूस करो
मैं खुशी हूँ...।

माँ..मुझे मार दो



प्यारी माँ,
तुम्हे देखा तो नहीं है, न ही तुम्हारी आवाज़ सुनी है, पर तुम्हारी धङकनों से सब समझती हूँ। माँ...आज तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ। मैं बहुत डरी हुई हूँ। माँ कल ही जब तुम्हारी धङकनो की रफ्तार बङी तो मुझे पता चला कि पङोस वाली गीता दीदी के साथ क्या हुआ। दीदी के चेहरे पर किसी ने तेजाब डाल दिया है न माँ...वो जल गई है न...मैंने महसूस किया था दीदी की माँ रो-रो कर कह रही थी “मेरी बेटी का क्या कसूर था...सिर्फ छेङखानी का विरोध ही तो किया था न उसने...उसकी इतनी बङी सजा़? क्या होगा अब मेरी बेटी का...???”...माँ, दीदी का क्या दोष था..?
माँ परसो मुझे चोट लग गई...जानती हूँ आपको भी काफी चोटे लगी है...पापा ने आपको क्यूँ मारा माँ? मुझे बहुत दर्द होता है...ऐसी चोटे मुझे अक्स़र लगती रहती है..माँ पापा से कहिये न कि उनकी हिंसा उनकी बेटी तक पहुँच रही है..मां..करुणा बुआ की आहट अब कब सुनाई देगी? हा माँ..आपकी धङकनों ने सब बता दिया।करुणा बुआ का स्कूल छुङवा कर उनकी शादी करवा दी न माँ..पर अभी तो वो छोटी है न माँ..अब वो खेलने कैसे जाएंगी माँ..?मैंने तो सोचा था उन्हीं से पढ़ना लिखना सीखूंगी।दादू ने बुआ की शादी इतनी जल्दी क्यूँ कर दी माँ..?
माँ उस दिन चाचा के गुस्से को आपकी धङकन से महसूस किया था।चाची अपने घर से क्या नहीं लायी जो चाचा उनको लाने को कह रहे थे माँ...चाचा चाची को वापस भेजने को भी तो कह रहे थे न..पर माँ,चाची तो अभी अभी ही आई है..मैं तो सोच रही थी चाची ही मुझे तैयार किया करेंगी।चाचा से कहो न माँ...कितना सामान तो लाई थी चाची..अब वो उन्हें घर न भेजे...
माँ आपको मेरी नन्ही आँखों को खुलते देखने का..मेरे छोटे गुलाबी हाथों को अपने हाथों में लेने का.. रोने की आवाज़ सुनने का बहुत इंतज़ार है न..मैं जानती हूँ आपको जानकर बहुत दुख होगा,पर माँ..मैं बहुत डर गई हूँ।माँ सारी बेटियों की ज़िन्दगी ऐसी क्यूँ होती है?आपकी दुनिया में आने के बाद मेरी हालत भी गीता दीदी,करूणा बुआ,चाची और आपकी तरह हो जाएगी न?माँ मुझपर रहम करो,मैं इस बेरहम दुनिया में नहीं जी पाऊंगी..इसलिए मेरी ये विनती सुन लो...माँ मुझे जन्म न दो...मार डालो...इससे पहले की मैं बारबार मरुँ...
आपकी अजन्मी बेटी

काश..मेरा भी घर होता


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मेरे घर में निर्माण कार्य चल रहा था।मजदूरो में से एक था काशीराम..मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव से परिवार समेत दिल्ली मजदूरी करने आया था,फिर यहीं बस गया।एक-दो दिन में ही मेरी उससे अच्छी बातचीत हो गई।उसकी पत्नि साथ में ही मजदूरी करती थी।एक दिन मैंने उससे पूछा घर कहाँ है तुम्हारा?”उसके चेहरे के भाव ही बदल गए।उसने गंभीर होकर कहा हनुमान मंन्दिर वाली सङक के सिग्नल के पास।फिर वो अपने काम में लग गई।अगले दिन जोरदार बारिश हुई।उस दिन काम बन्द रहा।शाम को मौसम खुला तो मैं निकल पङी सैर पर।हनुमान मन्दिर वाली सङक पर पहुँची तो देखा काशीराम सङक के किनारे,बेहद परेशान खङा हुआ था।पास ही उसकी पत्नि अपनी झोपङीं (जो अब तक लगभग नष्ट हो चुकी थी),से सामान निकालकर एक जगह इकट्ठा कर रही थी।मैंने उस समय वहां से निकल जाना ही ठीक समझा।अगले दिन घर का काम फिर शुरू हो गया।काशीराम बहुत उदास लग रहा था।दोपहर में जब लंच टाइम हुआ और वो सुस्ताने लगे तो मैं हिम्मत जुटाकर अफसोस जताने उनके पास पहुँच गई।मैंने पिछले दिन की बात छेङी ही थी कि काशीराम रूआँसा होके बोला , “का करे बिटिया हम बेघर लोगो की तो यही जिन्दगी हैं।फिर उसकी पत्नि ने कहा, आप का समझोगी बिटिया रानी... घर के न होने से किन-किन मुसीबतों का सामना करना पङता है।मौसम की मर तो झेलो ही साथ में पुलिस के भगा देने का डर।काश.....हमारा भी अपना एक घर होता।इतना कहकर उसकी आँखों से झरझर आँसू बहने लगे।उस पल अहसास हुआ कि सिर पर एक छत का न होना कितना तकलीफदेह होता हैं।काशीराम ने तो कुछ ही दिनों मे अपनी झोपङी बना ली पर ये डर हर पल उसके मन में रहता कि न जाने कब वो बेघर लोग फिर दोबारा बेघर हो जाए।

सरकार और सैंकङों एनजीओ इस मूलभूत आवश्यकता (मकान) से वंचित लोगो को राहत दिलाने के काम में लगी है पर फिर भी कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आ रहे।काशीराम के परिवार के जैसे न जाने कितने लोग बिना छत के अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं।आवश्यकता है कि सरकार इस ओर अपना ध्यान आकर्षित करे ताकि फिर कोई बारिश किसी काशीराम को बेघर न कर सके।