मेरी तलाश मेरा मक़सद


हर रास्ता नापा

मन्ज़िल को तलाशना मक़सद था

हर मुश्किल झेली

ज़िन्दग़ी से जीतना मक़सद था


हर बुराई का रास्ता रोका

न्याय को तलाशना मक़सद था

हर अच्छाई का साथ दिया

विश्वास टूटे न कभी मक़सद था


हर अंधेरे को झेला

उजाले को तलाशना मक़सद था

हर परिस्तिथि का सामना किया

अनुभव पाना मक़सद था


हर जलती आग को बुझाया

बचे निशां तलाशना मक़सद था

हर खूबसूरती को सराहा

उम्मीदों की लौ को जलाना मक़सद था....

“कुछ बनना” क्यूँ ज़रुरी है?


अक़्सर अपने दोस्तों को कहते सुनती हूँ कुछ बन जाऊँ यार तब देखना...., या घर के बङे-बुज़ुर्ग बार बार ये मशविरा देते है, बेटा पहले कुछ बन जाओ तब ये करना...।मेरी बहन तीन साल के अपने नन्हें बेटे के लिए दिन-रात बस एक ही दुआ मांगती है कि वो बङा होके कुछ बन जाए.....।दूसरों की क्या बात करुँ...मैं खुद अक्सर बातों बातों में कह देती हूँ,एक बार कुछ बन जाऊँ बस........।बहुत से पेरेन्ट्स अपने बच्चों को कहते है,हम तो अपनी ज़िन्दगी में कुछ बन नहीं पाए इसलिए चाहते है तुम तो कुछ बन जाओ...

अब यहाँ पर कुछ क्या है ये तो बन्दे-बन्दे पर डिपेन्ड करता है जैसे इंजीनियर, डॉक्टर, पत्रकार, टीचर, एक्टर...कुछ भी।पर मेरी तो ये समझ नही आता कि आखिर कुछ बनना इतना ज़रुरी है क्यूँ....?

बचपन से जवानी के बीच का कीमती समय हम कुछ बनना है के बोझ तले दबाते आए है.. अरे यार जो बनना होगा बन ही जाएंगे इतनी टैंशन काहे की...माना planning बहुत ज़रूरी है पर planning ऐसी हो जिसमे मज़ा आए...रो-रो कर कैसे कुछ बनोगे....बन भी गए तो satisfaction शायद न मिल पाए।असल बात तो ये है कि हम कुछ बनना इसलिए चाहते है ताकि हम दूसको को दिखा सके कि हम खास है..भीङ से अलग..अरे पर ध्यान दो ऐसे ही लोगो कि अब भीङ हो गई है।

तो मित्रो कुछ बनने की tention लेना छोङों और अपने जीवन का हर एक क़ीमती पल जियो... हर एक अवसर का पूरा फ़ायदा उठाओ.. कुछ नहीं बहुत कुछ बन जाओगे...।

मैं शबनम हूँ..ओस की नन्हीं बूँद


मैं शबनम हूँ....

ओस की एक नन्हीं बूँद....

एक सुकून भरा अहसास....

मैं शीशे की तरह साफ....

फूल-पत्तियाँ आशियाँ है मेरा...

मैं न किसी से दूर...

न किसी के पास...

मुझे तुम पा नहीं सकते...

बस महसूस करो मुझको...

कुछ लम्हो की ज़िन्दगी है मेरी...

न करो मुझे तनहा...

पैरों तले तुम्हारे कुचलकर...

कहती हूँ अलविदा-ए-ज़िन्दगी...

कभी मैं तुम्हारे...

हाथों में फना होती हूँ...

खुदको ख़त्म करके...

एक रुहानी अहसास तुम्हे देती हूँ...

खुद तबाह होकर भी...

आबाद रहो तुम ये दुआ देती हूँ...

मैं शबनम हूँ...

ओस की एक नन्हीं बूँद...

एक वादा तोङा हमने

वादे तो होते ही तोङने के लिए है


वादा इसलिए तोङ दिया एक हमने


गुनाह कहोगे अगर इसे


तो आज एक गुनाह कर लिया हमने


सब्र की इंतेहा देखी ही न गई


बहुत जल्दी किनारा कर लिया हमने


परेशान क्यूँ करे सबको


सोचकर ही ये फैसला किया हमने


नाते सब तोङ लिए


रास्ता बदल लिया हमने


गुंजाइश न कुछ रह जाए सोचकर


खुद का दिल ही तोङ लिया हमने

‘ईमानदारी’ परेशान है...

(कुछ दिन पहले राजकिशोर जी का एक लेख पढ़ा था..उनकी शैली ने मुझे बहुत प्रभाव किया...उसी शैली में कुछ लिखने का प्रयास किया है.....)

सङक पर चलते हुए ये महसूस हुआ कि पास की झाङियों में कोई है...कोई है जो छुपा हुआ है।हिम्मत करके मैं वहाँ गई तो देखा कोई डरा हुआ सा प्राणी बङी दयनीय हालत में वहाँ छिपा हुआ है।

पास जा कर मैने पूछा तुम कौन हो?उस जीव ने काँपती आवाज़ में कहाँ ईमानदारी।इतना कहकर उसने सुबकना शुरू कर दिया।मैने उसे चुप कराया और उसे अपने साथ सङक पर लेकर चल पङी।बातचीत का दौर भी चल पङा।

मैने पूछा ईमानदारी तुम इतनी डरी सहमी क्यूँ हो?छिप किससे रही थी?उसने दबी जुबां में जवाब दिया, अपने दुश्मनों से छुप रही हूँ,मुझे जान का खतरा है।

दुश्मन…???” मैंने लगभग चौंकते हुए कहा।फिर थोङा सामान्य होके बोला...अरे तुम्हारा कौन दुश्मन हो सकता है..आम इन्सान हो या नेता तुम्हारे गुणगान तो हर कोई करता है...बचपन से ही हमें तुम्हारा हाथ थामकर चलने की सीख दी जाती है..अपने नैतिक मूल्यों की लिस्ट में तो तुम्हें हम सबसे उँचा स्थान देते है..।

इस पर ईमानदारी भङक गई।गुस्से में बोली,रहने दो,छोङो..तुम इन्सान दोगले हो..कहते कुछ हो करते करते कुछ हो....आज मेरे सामने मेरे कई सारे दुश्मन आके खङे हो गए है...भ्रष्टाचार, झूठ, बेईमानी, लोभ-लालच....ये सब मेरे खून के प्यासे हो गए है...मेरा जीना मुहाल कर दिया है इन सबने...इतना कहकर ईमानदारी फिर सिसकने लगी।

मैने कंधे पर हाथ रखकर दिलासा दिया,फिर हिम्मत बंधाने के उद्देश्य से कहा,ईमानदारी,हिम्मत मत हारो,तुम तो एक शाश्वत सत्य हो। इस पर ईमानदारी ने एक कटीली मुस्कान दी और कहा, जनाब आप खुद तो मुझे अपनाने से डरते हो, फिर कैसे मेरे सुनहरे भविष्य की कल्पना कर सकते हो..?”

मेरा सर शर्म से
झुक गया..मुझे निराश देख
ईमानदारी मुझसे बोली.. फिक्र मत करो,समय के साथ जैसे हर चीज़ बदलती है..मैं भी सोच रही हूँ अपने स्वरूप में थोङा परिवर्तन लाउँ ताकि फिर तुम्हारी पहुँच में आ पाउँ।

इतना कहकर ईमानदारी जाकर फिर झाङियों में छिप गई और मैं तेज़ कदमों से चल आगे बढ़ गई..।

तेरी उदासी


उदासी तेरे मन की
मुझसे झिपती तो नही है..
तेरा चेहरा सब बयां करता है..
वो तेरा खुद में खुद में खोया रहना..
बातों को अनसुना कर देना..
तेरी हालत कह देता है..
आँसू तो निकलते नहीं है पर
तू रूआंसा सा ही रहता है..
महफिल में भी तू
तनहा ही तो रहता है...
इस पर भी कहता है
परेशान न हो,मुझे कुछ नहीं हुआ है......

लाईब्रेरी में बातों का मज़ा


वैसे तो मै पढ़ने का ज़्यादा शौक़ रखती नहीं हूँ,पर कभी जोश चङ जाता है तो चल पङती हूँ लाईब्रेरी की तरफ़। लाईब्रेरी.....अरे वही जगह जहाँ कुछ नई और कुछ बाबा आदम के ज़माने की किताबों का बहुत बङा जमावङा होता है..जहाँ “keep silence” के boards लगे होते है..जहाँ students छिप-छिप कर मोबाईल फोन पर बाते करते है..जहाँ आपस में बात करने से पहले चारों तरफ देख लिया जाता है कि कोई तीखी नज़र ह पर पङ तो नहीं रही..जी हाँ, वही जगह जिसकी तस्वीर अब आपके मन में उभर रही होगी,उसी जगह की बात कर रही हूँ..लाईब्रेरी।

हाँ तो मैं गई लाईब्रेरी।काफ़ी वक़्त के बाद गई थी..नहीं नहीं याद आया कालेज की लाईब्रेरी में तो पहली बार ही गई थी।ऐसा लग रहा था जैसे किसी नास्तिक को मन्दिर जाने में लगता होगा।फिर नज़र पङी बेहद डरा देने वाली चीज़ पर...”KEEP SILENCE” का Boad.अजी शान्त बैठना मेरे बस की बात नहीं, पर सोचा समय आ गया है अपनी इस कमज़ोरी पर विजय प्राप्त करने का।तो पहुँची एक टेबल के सामने एक कु्र्सी खींची और बैठ गई किताब के पन्ने पलटने।कितनी कोशिश की पर......पर ध्यान किताब से ज़्यादा आसपास वालों पर ज़्यादा था।मेरे साथ वाली टेबल पर दो लङके पढ़ रहे थे।पढ़ रहे थे??? शायद...।ध्यान जो किताबो में नहीं लग रहा था वो उनकी बातों में आसानी से लगने लगा।पता चला की उनमें से एक महाशय दूसरे को किताब में छुपाकर कुछ तस्वीरे दिखा रहे थे।तस्वीरे लङकी की थी...पढाई...।फिर ध्यान गया आगे की तरफ बैठी तीन-चार लङकियों के ग्रुप पर।बहुत सीरियस वाली ग्रुप-स्टडीज़ चल रही थी...शायद...।ज़रा और ध्यान दिया तो भ्रम टूटा।असलियत ये थी कि उनमे से एक लङकी अपनी सहेलियों से अपनी मम्मी की बुराईयां कर रही थी और बाकी बङे ध्यान से सुन रही थी...पढ़ाई...।फिर सोचा भई यहाँ बङा disturbance है,कहीं और चलके पढ़ना चाहिए।तो टेबल बदलकर दूसरी जगह बैठी।साथ ही एक लङका बैठा पढ़ रहा था।अचानक नीचे की तरफ झुका मुझे लगा कुछ गिर गया है।काफी देर तक जब वो ऐसे ही झुका रहा तो मेरे अन्दर की “SOCIAL WORKER” जाग गई..सोचा इसकी मदद की जाए।जैसे ही मैं भी झुकी तो पता चला कि जनाब मोबाईल फोन पर बात कर रहे थे...ज़ाहिर है छुपकर।हद है...मैने सोचा।क्या ज़माना आ गया है..लाईब्रेरी में भी शान्ति से नहीं पढ़ सकते।गुस्से में थी तभी एक दोस्त आ गया..और जी क्या हो रहा है???” मैं मुस्कुराई..कहा,कुछ नहीं आओ बैठो। फिर वो आके बैठ गया तो मैने अपनी चुप न रहने वाली आदत पर विजय पाने का प्लान drop कर दिया और लग गई बात बनाने में..अपना हाल-चालसुनाने..।वैसे एक बात तो है लाईब्रेरी में बात करने में जो मज़ा है वो और कहीं नहीं।

अधूरी ज़िन्दगी

हर खुशी से महरुम है

ये ज़िन्दगी अब मेरी

कि तेरे बिन अधूरी है

ज़िन्दगी अब मेरी

न सुबह की ता़ज़ग़ी न रात की ठंडक

रूठी हुई है मुझसे ज़िन्दग़ी अब मेरी

है राहों में अब अंधेरा ही अंधेरा

ढूंढती है बस तुझे ही निगाहे अब मेरी

हौसले बढ़ाने को तो सब है मेरे पास

बस नहीं है तो खुद की उम्मीदें अब मेरी

बहुत हक़ से प्यार किया है

पर तुझे कदर कहाँ है मेरी

तू तो मुझे जानता भी नहीं है

फिर कैसे कहूँ तुझे तू ज़िन्दग़ी है मेरी

हर खुशी से महरुम है

ये ज़िन्दगी़ अब मेरी

कि तेरे बिन अधूरी है

ये ज़िन्दग़ी अब मेरी

मेरे लफ़्ज़

लफ़्ज़ों को रौशनाई का साथ दे दूँ गर

कोई काग़ज़ ऐसा मिल जाए

शब के अंधेरों में भी जिसमें

सब कुछ नज़र आए

तब वो भी पढ़ पाएंगे मेरे इन जज़्बातों को

गर उनके पास मेरे लिए

पल दो पल का वक़्त निकल आए...

कश-म-कश


कश-म-कश है मन में

चल रही है हर पल

खुद से पूछती हूँ सवाल कुछ

जानना चाहती हूँ खुद को

कौन हूँ मैं क्या मक़सद है मेरा

ज़िन्दगी को कहा ले जा रही हूँ

अपनी उम्मीदें पूरी कर रही हूँ या

अपनों को दिलासा दे रही हूँ

ठहर सी गई है ज़िन्दगी मेरी

कुछ फैसलों की ज़रुरत है अब

क्या करुँ कौन सी राह चुनु

जवाब ये ढूँढ रही हूँ

कश-म-कश है मन में

चल रही है हर पल

भाषा बङी या भावनाएँ?


एक शोर सुनकर आज लिखने पर मजबूर हो गई हूँ।हर तरफ से भाषाओ की लङाई का शोर सुन रही हूँ।कोई हिन्दी का घोर समर्थक है तो कोई अंग्रेज़ी भाषा को अनिवार्य मानता है कुछ उर्दू,अरबी,संस्कृत जैसी भाषाओं को लुप्त होने से बचाने के लिए चिल्ला रहा है कोई क्षेत्रीय भाषाओ के पीछे दीवाना हुआ जा रहा है तो कोई विदेशी भाषा को सीखने का नया फैशन अपना रहा है।ये बातें मेरे मन में हलचल पैदा कर रही है।मन में बार बार ये सवाल उठ रहा है भाषा बङी है या भावनाएँ? भाषा का तो यही मक़सद है न कि हम एक दूसरे की भावनाओं को समझ व समझा सके।ये मक़सद तो हर भाषा में पूरा हो सकता है।ये भी ज़रूरी नहीं कि भाषा का सर्वोच्च व शुद्घ रूप का ही प्रयोग किया जाए।टूटी-फूटी और मिश्रित भाषा के प्रयोग से भी तो काम चलाया जा सकता है न.. अगर विचार अच्छे हो तो वो हर भाषा में ही अच्छे लगेंगे।हांलाकि मैं जानती हूँ कि भाषा किसी भी सभ्यता का एक अभिन्न अंग होती है पर वह केवल एक अंग मात्र है उसके लिए समस्त सभ्यता को प्रताङित नहीं किया जा सकता।

तो मित्रों,भाषाओ की इन चिन्ताओ और लङाई में बङा सीधा सा पक्ष है मेरा कि भावनाएँ भाषा से ज़्यादा महत्वपूर्ण है।भाषा की लङाई में कहीं हम भावनाओं को दरकिनार कर रहे है।आप लोगो के पक्ष भी ज़रूर जानना चाहूँगी।