हुनर




आज खिड़की खोली

तो हवा का

एक उदास झोंका

मेरे पीले चेहरे से

आकर टकराया

बेचैन पलकें

कुछ और

बेचैन हो उठीं

सूखे होंठ

कुछ और सूख गए

बिखरे बाल

चेहरे से हट

कंधों पर ढल गए

और मेरा सूक्ष्म शरीर

पहुंच गया

उस खुशहाल बचपन में

जहां मां की गोद

और पिता की बाहें

आने से रोक लेती थी

इस खिड़की पर

शायद

असलियत से

वाकिफ होने का हुनर

तब सीखना

बाकी था

चरित्र

वो हंसकर बात करे

तो ज़िंदादिल

और मेरा खिलखिलाना

सबूत हो गया

मेरे गिरे चरित्र का....

वो घर आए

देर से

तो मेहनती

मेरा सांझ ढले

खिड़की से झांकना

सबूत हो गया

मेरे गिरे चरित्र का....

उसका टकटकी लगाए देखना

उसका प्रेम

और

मेरा नज़र उठाना

सबूत हो गया

मेरे गिरे चरित्र का....

रात और मैं...जैसे...

खाली ख़ामोश रातों में

अधूरे सपने

ज़ख्मी ख्वाहिशें

बेचैन यादें,

अक्सर जागे रहतें हैं

संग संग मेरे...

ज़ोर आज़माइशें

करते हैं

जलते बुझते हैं

उनका सामना

करती मैं

जैसे...

लौ लड़ रही हो

बेरहम हवा से...

जैसे...

तड़प रही ज़मीन हो

कहर-ए-आफ़ताब से...

जैसे...

हर सांस लड़ रही हो

आने वाली

अगली सांस से...

जैसे...

वक़्त हो चला

ख़फा हो

मेरे हर एक अंदाज़ से...

जैसे...

जैसे...

हर नए ‘डे’ के दुश्मन

वेलेंटाइन डे के साथ-साथ कुछ लोगों को अब विमेंस डे से भी दिक्कत होने लगी है। ठीक है होगी दिक्कततो तुम मत मनाओं भई...कौन ज़बरदस्ती कर रहा है लेकिन कुछ लोग अगर इस बहाने थोड़े खुश हो लेते हैं, सेलिब्रेट कर लेते हैं तो तुम्हारा क्या जा रहा है? उस पर से तुम लोगों के स्टूपिड रीज़न...कि विमेंस के लिए के लिए बस एक दिन? बाकी के 364 दिन? अरे यार...हद है...अब हम इंडीपेंडेंस डे भी तो मनाते है ही न...एक ही दिन सेलिव्रेट करते हैं न...साल के 365 दिन तो नहीं मनाते...? ईद भी एक दिन मनाते हैं...दिवाली...क्रिसमस... यहां तक कि अपना बर्थडे... तो फिर... उसे तो आप लोग बड़े शौक से मनाते हैं...मतलब कुछ लोगों का काम हो गया है कि जो पहले से चला आ रहा है चाहे रीति-रिवाज़ के नाम पर चाहे परंपरा के नाम पर उसे घसीटते जाओ लेकिन अगर आज की जेनरेशन कुछ नया करना चाह रही है, अपनी पसंद से कुछ सेलिब्रेट करना चाह रही है, तो उसमें उनके पीछे पड़ जाओ...

कुछ नहीं तो ये रीज़न...कि बाज़ारवाद की देन हैं ये सारे डे... एक बात बताओ क्या नहीं है बाज़ारवाद की की देन...और कहां नहीं है बाज़ारवाद... करवाचौथ... उसके खिलाफ तो किसी को कहते नहीं देखा... वहां बाज़ारवाद क्यों नहीं दिखता किसीको... ओह मैं भी क्या बात करने लगी... इस दिन के खिलाफ कैसे कुछ कहा जा सकता है, तथाकथित रिवाज़ो की पैकिंग में जो आता है ये दिन...और हां.. वर्ल्ड कप.. उसके लिए सब पागल हुए जा रहे हैं उसमें बाज़ारवाद को रोल क्रिकेट से ज्यादा है... वो क्यों नहीं दिखता...

और बेस्ट रीज़न तो ये दिया जाता है कि ये सब पश्चिम की देन है...वेस्टर्न कल्चर यहां पैर जमा रहा है... वाह... अरे पश्चिम की देन तो बहुत कुछ है... जो सूट-बूट पहनते हैं न... और माइक्रोवेव में खाना गर्म करके खाते हैं... वो हमारे देश का नहीं है जनाब... तो अगर ये भी पश्चिम से इंसपायर्ड है तो क्या फर्क पड़ता है... अब प्लीज़ ये मत कहना कि इससे हमारे कल्चर को खतरा हो सकता है... ख़तरा केवल उन चीज़ों को होता है जो काम की नहीं और अगर हमारे कल्चर में ऐसा कुछ है भी जो किसी काम का नहीं तो उसपर तो खतरा होना ही चाहिए... बाकी महान चीज़ों को कोई ख़तरा नहीं... तो फिक्र मत कीजिए वेस्टर्न कल्चर आपको और आपके कल्चर को खा नहीं जाएगा बल्कि और रिच बनाएगा...

तो इन नए नवेले डे से नफ़रत करने वालों... बात मानों और बेकार में बिगड़ैल यूथ, बढ़ता बाज़ारवाद और वेस्टर्न कल्चर के नाम पर बेवजह बेतुकी बातें करना बंद करो और खुले दिमाग से सोचो और बोलो... अगर ऐसा नहीं भी करने वाले तो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि आप इन सब चीज़ों को रोक तो सकते नहीं क्योंकि परिवर्तन को आजतक रोक भी कौन पाया है।

(शायद एक युवा यहीं सब सोचता होगा जब उसे, उसकी सोच और इच्छाओं, पसंद-नापसंद को बार-बार अनुभव के तराजू में तोलकर कम मापा जाता है)