वैसे तो मै पढ़ने का ज़्यादा शौक़ रखती नहीं हूँ,पर कभी जोश चङ जाता है तो चल पङती हूँ लाईब्रेरी की तरफ़। लाईब्रेरी.....अरे वही जगह जहाँ कुछ नई और कुछ बाबा आदम के ज़माने की किताबों का बहुत बङा जमावङा होता है..जहाँ “keep silence” के boards लगे होते है..जहाँ students छिप-छिप कर मोबाईल फोन पर बाते करते है..जहाँ आपस में बात करने से पहले चारों तरफ देख लिया जाता है कि कोई तीखी नज़र ह पर पङ तो नहीं रही..जी हाँ, वही जगह जिसकी तस्वीर अब आपके मन में उभर रही होगी,उसी जगह की बात कर रही हूँ..लाईब्रेरी।
हाँ तो मैं गई लाईब्रेरी।काफ़ी वक़्त के बाद गई थी..नहीं नहीं याद आया कालेज की लाईब्रेरी में तो पहली बार ही गई थी।ऐसा लग रहा था जैसे किसी नास्तिक को मन्दिर जाने में लगता होगा।फिर नज़र पङी बेहद डरा देने वाली चीज़ पर...”KEEP SILENCE” का Boad.अजी शान्त बैठना मेरे बस की बात नहीं, पर सोचा समय आ गया है अपनी इस कमज़ोरी पर विजय प्राप्त करने का।तो पहुँची एक टेबल के सामने एक कु्र्सी खींची और बैठ गई किताब के पन्ने पलटने।कितनी कोशिश की पर......पर ध्यान किताब से ज़्यादा आसपास वालों पर ज़्यादा था।मेरे साथ वाली टेबल पर दो लङके पढ़ रहे थे।पढ़ रहे थे??? शायद...।“ध्यान” जो किताबो में नहीं लग रहा था वो उनकी बातों में आसानी से लगने लगा।पता चला की उनमें से एक महाशय दूसरे को किताब में छुपाकर कुछ तस्वीरे दिखा रहे थे।तस्वीरे लङकी की थी...पढाई...।फिर ध्यान गया आगे की तरफ बैठी तीन-चार लङकियों के ग्रुप पर।बहुत सीरियस वाली ग्रुप-स्टडीज़ चल रही थी...शायद...।ज़रा और ध्यान दिया तो भ्रम टूटा।असलियत ये थी कि उनमे से एक लङकी अपनी सहेलियों से अपनी मम्मी की बुराईयां कर रही थी और बाकी बङे ध्यान से सुन रही थी...पढ़ाई...।फिर सोचा भई यहाँ बङा disturbance है,कहीं और चलके पढ़ना चाहिए।तो टेबल बदलकर दूसरी जगह बैठी।साथ ही एक लङका बैठा पढ़ रहा था।अचानक नीचे की तरफ झुका मुझे लगा कुछ गिर गया है।काफी देर तक जब वो ऐसे ही झुका रहा तो मेरे अन्दर की “SOCIAL WORKER” जाग गई..सोचा इसकी मदद की जाए।जैसे ही मैं भी झुकी तो पता चला कि जनाब मोबाईल फोन पर बात कर रहे थे...ज़ाहिर है छुपकर।“हद है”...मैने सोचा।क्या ज़माना आ गया है..लाईब्रेरी में भी शान्ति से नहीं पढ़ सकते।गुस्से में थी तभी एक दोस्त आ गया..”और जी क्या हो रहा है???” मैं मुस्कुराई..कहा,”कुछ नहीं आओ बैठो”। फिर वो आके बैठ गया तो मैने अपनी चुप न रहने वाली आदत पर विजय पाने का प्लान drop कर दिया और लग गई बात बनाने में..अपना “हाल-चाल” सुनाने..।वैसे एक बात तो है लाईब्रेरी में बात करने में जो मज़ा है वो और कहीं नहीं।
6 टिप्पणियाँ:
अच्छा है। ये अक्सर लाईब्रेरी में होता है।
बहुत खूबसूरत शबनम जी.. आपने लाइब्रेरी पर बढ़िया कलम चलाई है.. मेरा तजुर्बा भी ऐसा ही है... लेकिन कलम चलाने की कभी हिम्मत नहीं हुई... लेकिन एक बात तो मानना पड़ेगी.. आखिर आप भी लाइब्रेरी में जाकर खुद को बोलने से रोक न सकीं.. शानदार लिखा है.. पहली बार आपका ब्लॉग देखा मज़ा आ गया...
Excellent way of presenting the incident..You have depicted the things so beautifully that it realises the origionality to us...Gr8!!!
Ansh...Ek ehsaas...(Blog: Khwahish....a desire to fulfil uncomplete dreams....)
ham hindustani hain na, ye hamara haq hai
'sare niyam tod do, niyam pe chalna chhod do'
shahid mirza shahid
ha ha ha bahut kuch sahi kaha aapne ...kuch kuch aisa hi hota hai library main !! lakin mujhe lagta hai its depend on our thought jaise mandir main har koi chori karne hi nahi jata ? waha log pooja karne bhi jate hai !! or dost wo collage life hi kya jahan dhamal na ho so keep doing dhamal @)
Jai Ho Mangalmay Ho
bahut achchha!!!
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