हर बार...

चीखती चिल्लाती

खामोश उदासियों से

कहते कहते

रूक जाती हूं हर बार...

अंदर उठते

ख़ामोश तूफ़ानों को

रोकते रोकते

थम जाती हूं हर बार...

बह रही

खौफ़ज़दा तनहाईयों पर

हसते हसते

रो पड़ती हूं हर बार...

कैद जज़्बातों की

गांठ को

खोलते खोलते

बांध देती हूं हर बार...

रूकते, थमते, रोते, बांधते

खुद को खो देती हूं हर बार..!

12 टिप्पणियाँ:

बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

 

main bhi aapko padhte padhte thithakti hun kai baar ....

 

बहुत ही अपनी सी लगी रचना...

 

कैद जज़्बातों की
गांठ को
खोलते खोलते
बांध देती हूं हर बार.

गाँठ बंधी रहे तो ही बेहतर ..वरना सब कुछ बिखर जाता है ..

 

मै भी संगीता जी की टिप्पणी से सहमत हूँ। बेहतरीन लेखन के लिये बधाई और शुभकामनाएं।

 

गंभीर और बेहतर अभिव्यक्ति

 

दिल की गहराईयों को छूने वाली बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.

 

kho ka khud dhoondh lena ek kala hai aur ise seekhna bahut jaruri hai.

sunder abhivyakti.

 

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