आज खिड़की खोली
तो हवा का
एक उदास झोंका
मेरे पीले चेहरे से
आकर टकराया
बेचैन पलकें
कुछ और
बेचैन हो उठीं
सूखे होंठ
कुछ और सूख गए
बिखरे बाल
चेहरे से हट
कंधों पर ढल गए
और मेरा सूक्ष्म शरीर
पहुंच गया
उस खुशहाल बचपन में
जहां मां की गोद
और पिता की बाहें
आने से रोक लेती थी
इस खिड़की पर
शायद
असलियत से
वाकिफ होने का हुनर
तब सीखना
बाकी था…
15 टिप्पणियाँ:
बेहतरीन शब्द ...।
बहुत खूब...
निःशब्द!!
असलियत से
वाकिफ होने का हुनर
तब सीखना
बाकी था…
जिंदगी का फलसफा.......वाह क्या बात है
sacchaaion ka aaina ban gayi khidki........very nice.
aaj un hawaon ne sikhaya bhi , yaaden bhi le aaye
यथार्थ...
khud hi seekhna hai...
Zindagi ki sachchaai ke behad kareeb.
umda!!! mubarakbad lijiye dil se!!
सुन्दर अभिव्यक्ति
zindgi ki dhod me kuchh chhot gya tha
sayad mera bachpan mujhse rooth gaya tha
hoti hogi aisi hi sabki zindgi
maine ye maan liya tha
fir dekha jo karib se,
to paya ki maine to sab kuchh kho diya tha
bahut achhi poem thi,
keep it up
शबनम खान जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
हुनर पढ़ कर बहुतों को कविता लिखने के हुनर से रू-ब-रू होने का मौका मिल सकता है
बहुत बेह्तर लिखा है आपने
असलियत से
वाकिफ होने का हुनर
तब सीखना
बाकी था…
रचना में आपकी भावुकता और समझदारी दोनों ख़ूबी के साथ उपस्थित हैं …
दिली मुबारकबाद !
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
पुरुष प्रधान समाज की सकरी मानसिकता पर गहरी चोट करती है 'चरित्र' , और ये उन मान्यताओं से ऊपर है जहाँ नारी सशक्तिकरण सिर्फ समाज के निचले वर्गों की ज़रुरत समझी जाती है... जबकि सच इससे कहीं अधिक भयानक और घिनौना है... बहुत अच्छे शबनम..
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