भ्रम


ऐसा तो नहीं था
कि तुम
कोई भ्रम थे मेरा
कोरी कल्पना से जन्मे
कोई अनचाहे एहसास थे
फिर क्यूँ
जब हाथ बढाकर
तुम्हे छूना चाहा
तो तुम
अदृश्य हो गए
और रह गया
केवल शून्य
जो मुस्कुरा रहा था
उस निर्णय पर
कि जिसमे तुम्हें
अनंत समझा था....
-शबनम खान

12 टिप्पणियाँ:

इसलिए कहता हूं कि किसी भी यथार्थ को संदेह के घेरे में रखना कभी मत छोड़ो. उत्कृष्ट रचना

 

रिश्‍तों के भ्रम को आपने बखूबी बयां किया है। हार्दिक बधाई।

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कादेरी भूत और उसका परिवार।
मासिक धर्म और उससे जुड़ी अवधारणाएं।

 

अच्छी रचना......

 

शबनम खान जी
नमस्कार !
अहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है ॰॰॰॰॰॰ दिल को छूती हैं पंक्तियां ॰॰॰॰ आपकी रचना की तारीफ को शब्दों के धागों में पिरोना मेरे लिये संभव नहीं

कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई

 

आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को |

कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-

 

बेहतरीन अभिव्यक्ति !

 

भ्रम है जो आज
कल हकीकत भी हो सकता है
सुन्दर रचना

 

ek badi vedna ko kam sabdo me samet pana hi acche lekhan ka parichay hai ..bahut sunder :)

 

शून्‍य स्‍वयं में अनंत है
शून्‍य अंत है
जो अंक के आगे खड़ा हो जाए
तो क्षितिज हो जाता है
भ्रमाता है
आता है
लुभाता है
कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स के अवसर पर चूहे से चैट
में यही बतलाया है।

 

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