रोज की तरह उस दिन भी मैं बस में कालेज जा रही थी। हांलाकि बस खचाखच भरी थी लेकिन फिर भी मैंने अपने लिए एक सीट का इन्तजाम कर लिया था। शरीर को आराम मिलते ही मैंने आसपास के लोगों पर अपनी नजर दौङानी शुरू कर दी थी....कुछ लोगों का ध्यान अपनी घङी पर था...शायद उन्हें ऑफिस के लिए देर हो रही थी...हमेशा की ही तरह कुछ बूढे राजनीतिक पहलूओं पर बहस कर रहे थे....औरते आपस में झगङ रही थी। हर दिन की ही तरह दिल्ली की बसों का ये आम नजारा था। मेरी साथवाली सीट पर बेहद सभ्य सी नजर आने वाली एक महिला बैठी हुई थी।
बस के माहौल पर एक सरसरी नजर दौङाने के बाद मैंने अपने कानों को शोर से ढॅंक लिया।(आधुनिक युवाओं की यही तो पहचान है।)
एक रेङलाईट पर बस जब रूकी...24*7 एफ-एम चैनलों के कानफाङू शोर के बावजूद भी साथ बैठी महिला की आवाज मेरे कानों में पङी...."ओह बेचारे गरीब हैं"। मैंने नजर उठाकर देखा कि दो छोटे बच्चे सङक पर हर आने-जाने वाले से पैसे मांग रहे हैं....नहीं नही पैसे नहीं "भीख" मांग रहे थे। कुछ दयालू लोग उन्हें 1-2 रूपये भी दे रहे थे...कुछ लोग उन्हें दुत्कार रहे थे.....तो कुछ दया के दो शब्द बोलकर ही उन्हें चलता कर रहे थे। इतने में सिग्नल हरा हुआ वो "गरीब बच्चे" पीछे छूट गए........ ।
मैं फ़िर से अपनी धुन में मस्त हो गई थी और वो औरत जिसके माथे पर अभी कुछ देर पहले गरीबों की सहानुभूति में चिंता की लकीरे उभरी थी......अब ख़त्म हो चुकी थी....और अब वो अपने उसी माथे से बालों की लटें संवार रही थी। मेरे कान अभी भी संगीत की धुन पर झूम रहे थे लेकिन मेरा दिमाग अलग ही सोच में डूब चुका था....सिर्फ़ एक ही बात मन में घूम रही थी..."बेचारे गरीब हैं"...कुछ ही देर में मेरा स्टाप आ गया जहां से कुछ ही दूरी पर मेरा कालेज था.....कदम कॉलेज की तरफ़ बढ़ रहे थे पर दिमाग उसी सिग्नल पर अटका हुआ था। मेरे मन में सवालों का सैलाब हिलोरे खा रहा था......क्या वो औरत ठीक कह रही थी? क्या वो बच्चे वाकई में गरीब थे? तो क्या फिर वो लोग जो उन्हें चन्द सिक्के देकर सबके सामने "महादानी" बनने का ढोंग (कम से कम मेरे लिए तो यह एक ढोंग ही था)कर रहे थे वो अमीर थे? वो जो उन्हें दुत्कार रहे थे वो क्या थे? और जो दयाभाव के दो शब्द कहकर औपचारिकता पूरी कर रहे थे वो...वो कौन थे? ऐसे बच्चों को हजारों लोग रोजाना देखते होंगे.....कभी कोई चन्द सिक्के देकर अपना पीछा छुङा लेता होगा....तो कभी कोई लाल-लाल आंखें दिखाकर उन्हें धमका देता होगा। वो "महान" देश जो दूसरे देशों पर संकट आने पर अरबो रूपये की सहायता दे देता है....क्यों वो अपने ही देश के मासूमों की मदद नहीं करता? वो दिल्ली जो कामनवेल्थ के लिए अरबों रूपया खुद को सजाने-संवारने में व्यय कर रही है...क्यों वो इन नन्हीं जिन्दगियों को नहीं संवारती? वो लोग जो विभिन्न त्योहारों पर लाखो रूपये उङा देते हैं....क्यों वो इन बच्चों को खुशी देने की नहीं सोचते? हाईटेक हो रही युवा पीढी क्यों इन बच्चों को सभ्य बनाने के लिए हाथ नहीं बढाती?
क्या हमारी ये मजबूरियां (अक्सर हम इसे यही नाम देते हैं) किसी गरीबी से कम है?
वास्तव में गरीब वो भीख मांगते बच्चे नहीं...हम हैं। हमारा समाज है। हमारा देश है.....जो रक्षा बजट पर अरबों रूपये तो फूंक सकता है लेकिन उन गरीबों को आधारभूत सुविधायें नहीं दे सकता।
वास्तव में हम गरीब हैं.....हमारा देश गरीब है....।
4 टिप्पणियाँ:
Shabnam v nice article.....luvd to read u.........
maine apne sawaal ka jawab de diya hai.......... blog dekhna..... aur apna view rakhna.....
bhaut hi sunder hai
वास्तव में हम गरीब हैं.....हमारा देश गरीब है....।
क्योंकि यह लोकतंत्र नहीं 'धनतंत्र' है, जहां गरीब को इंसान नहीं समझा जाता...
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