बहुत दिनों बाद कल डीटीसी बस में जाना हुआ। मेट्रो की सहूलियत ने तो डीटीसी बस का सफर ही भुला दिया था, पर कल बस में जाना ज़रूरत भी थी और मजबूरी भी...हां, तो मैं एक खाली डीटीसी बस की विंडो सीट पर बैठ गई। बस अभी चली नहीं थी कि तीन लङके जिनकी उम्र 8-9 साल लग रही थी, वो बस में चढ़े। वो तीनों मेरे सामने की एक सीट पर बैठ गए। बैठते ही उन्होंने धमा-चौकङी मचानी शुरू कर दी। पहले तो मैंने उन पर ध्यान नहीं दिया, पर थोङी देर बाद जब उन बच्चों की शरारतें बढ़ने लगी तो मैंने उन पर ध्यान देना शुरू किया। वो लगातार आने जाने वाले लोगों पर कमेंट कर रहे थे, गालियां दे रहे थे और जमकर शोर मचा रहे थे।
बस में तीन चार लोग और चढ़ गए थे पर सब अपनी अपनी धुन में मस्त थे तो किसी ने उनको रोका टोका नहीं। फिर उनमें से एक मेरे पास आकर बैठ गया। अभी भी तीनों की हरकतें जारी थी। वो बच्चे आने जाने वाली लङकियों पर ऐसी फब्तियां कस रहे थे कि सुनने वालों को शरम आ जाए। मैं ये सब काफी हैरानी से देख रही थी। फिर मेरे साथ बैठा वो बच्चा मुझपर ही कमेंट करने लगा, पर यहां मैं शान्त रही। केवल उनकी बातों को सुनती रही। तभी, सामने बैठे बाकी दो बच्चों ने उसे अपने पास बुलाया तो उसने जवाब दिया... “भाई, माल साथ बैठा है, आंखे सेक रहा हूँ...” अब मुझसे रहा नहीं गया और मैंने तेज़ की चिल्लाकर उसे अपने पास वाली सीट से हटने के लिए कहा। मैरा ज़रा सा गुस्सा दिखाना था कि वो डर गया और चुपचाप उठकर अपने दोस्तों के पास चला गया।
अब बस चलने लगी थी। मुझे लगा था बस चलने पर वो तीनों उतर जाएंगे क्योंकि वो वहीं आस पास के स्कूल..माफ कीजिएगा “सरकारी स्कूल” के बच्चे थे जो लंच टाईम में भाग कर आ गए थे, उन्होने कोई टिकट वगैरह भी नहीं ली थी। पर ऐसा नहीं हुआ वो बच्चे उतरे नहीं। अब बस में बैठे कुछ सभ्य लोग अपना आपा खोने लगे और उन्हें डांटने लगे। पर वो बच्चे उनसे भी उलझने लगे। इतने में एक अधेङ उम्र का आदमी उनके पास गुस्से में गया उसने उन्हें दो-चार थप्पङ रसीद कर दिए...फिर कुछ और लोग उठकर आए और बच्चों को ज़बरदस्ती खींच कर बस से उतारने लगे। बस अभी रूकी भी नहीं थी कि उन्होंने उन तीनों को एक साथ नीचे धकेल दिया। तीनों बच्चे सङक पर गिर गए और उनमें से एक के सिर पर चोट आ गई। बस ड्राईवर ने बस रोकने की ज़हमत तक नहीं की। वो “सभ्य लोग” अपने हाथ झाङकर विजयी मुस्कान के साथ अपनी अपनी सीटों पर दोबारा बैठ गए। तब उनमें से एक बोला, “भई, सहते रहोगे तो ज़ुल्म बङेगा, सामना करोगे तब जाके कुछ हल निकलेगा ”। उनकी ये बात सुनकर मैं सोच में पङ गए कि यहां ज़ुल्म आखिर कर कौन रहा था और सह कौन रहा था। उनकी उम्र के अच्छे घरों के बच्चे या यूँ कहूँ कि आर्थिक रूप से सक्षम घरों के बच्चे मुझे दीदी कहकर पुकारते है,पर उनके लिए मैं एक “माल” थी। क्या उनकी परवरिश में कमी थी या उनके परिवार की आर्थिक व सामाजिक स्थिति ने उन्हें ऐसा बनाया। या फिर स्कूली शिक्षा के रुप में उनके साथ औपचारिकताएं पूरी की जा रही थी...
जब मैं नुक्कङ पर खङे युवा लङकों को सिगरेट फूंकते, आती जाती लङकियों को छेङते और छोटी-छोटी बातों पर गाली गलौच करते देखती हूँ तो मुझे उनके भविष्य की चिंता होती है कि आगे जाकर ये कैसे अपनी ज़िंदगी बिता पाएंगे...ये नुक्कङ भी उनका साथ कब तक देगा। इस यंगिस्तान के बाद जब चाईल्डिस्तान के ये हालात देखे तो चिंता और बढ़ गई। देश का भविष्य कहे जाने वाले ये बच्चे किस राह पर चल पङे है इसकी चिन्ता करने का वक्त शायद किसी के पास नहीं। कॉमनवेल्थ गेम्स की तथाकथित सफलता के पीछे हमारे देश की ऐसी कई असफलताएं छुपी हुई है, ठीक उसी तरह जैसे गेम्स के दौरान शानदार सङको, फ्लाईओवरों और तमाम खूबसूरत इमारतों के बीच कुछ बस्तियां बङे बङे परदों से छिपी हुई थी....
35 टिप्पणियाँ:
विचारणीय आलेख्…।
इन बच्चो को डांटना या बस से बाहर फ़ेंकना उचित नही, जो बच्चा आप के पास बेठा था अगर आप ही उसे प्यार से समझा देती तो बाकी सब भी शरमा जाते, ओर उन्हे अकल आ जाती, आप ने दुतकार दिया बाकी लोगो ने उन्हे थपडर मार कर चलती बस से फ़ेंक दिया, किसी बच्चे को ज्यादा चोट लग जाती तो, ओर फ़िर यह बच्चे हम से ही सीखेगे कि समाज मे केसे रहना हे, क्योकि वो भी हमारे ही समाज का एक अंग हे, ओर अब इस घटना से वो क्या समझे होंगे? स्कुल ओर सरकारी स्कुल मे क्या फ़र्क हे? एक सुंदर लेख, चर्चा के काबिल धन्यवाद
It makes us think what kind of society we are in making..!good one and a nice read .!
jan sailaab se sabhya smaj kii apksha karna bemani hai... dinodin ham arajkta ki or agrasar ho rahe hain... hmara nikat bhavishya pakistan ya afghanistan jaisa hone jaa rha hai... bimar mansikta ka prbhavshali chitran...dhanyavad.
दुखद स्थिति है और बदतर होती जा रही है. शायद हमारी तटस्थता ही इसके लिये जिम्मेदार है
आप के इस लेख ने फिर एक बार ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि इस अवस्था का ज़िम्मेदार कौन है ,
शायद हम सभी .
लेख बहुत अच्छा है और सार्थक भी परन्तु कुछ बाते समझ नहीं आई जैसे आपने स्कूल फिर उसे परिवर्तित कर सरकारी स्कूल कहा ! अच्छे घरो के बच्चे या यु कहे आर्थिक रूप से संपन्न बच्चे आपको दीदी कहकर बुलाते है !पड़कर ऐसा लगा की कही न कही आपका लेख सरकारी व प्राइवेट स्कूलों में अंतर के साथ गरीब अमीर में मतभेद भी कर रहा है!और एक बात यही हरकत यदि यूवा लड़के करते तो क्या उन यूवा लडको को कोई बस से बाहर फेकने की हिम्मत करता एक समय था!एक समय था जब हमारे देश में सेक्सी और डार्लिंग जैसे शब्दों को बोलने की हिम्मत सार्वजनिक रूप से कोई भी नही करता था परन्तु आज ये शब्द मार्डन यूग में फैशन में सम्मिलित हो गए है अब मार्डन लड़की सेक्सी और डार्लिंग जैसे शब्दों को सुनकर बुरा नही मानती!
घर, विद्यालय और समाज
इन तीन जगहों से बच्चो को संस्कार मिला करता था...... ८० के दशक तक तो....
पर अब हालात बदल गए हैं. टी वी, सिनेमा और उसके बाद अब इन्टरनेट........
आपका लेख पढ़ का मैं चिंता में पड़ गया हूँ. समझ नहीं आता कि भविष्य कहाँ है........
कम से कम इन बच्चो को देख कर तो यहीं लग रहा है की हम एक अंधे कुएं की तरफ बड रहे हैं.
“दीपक बाबा की बक बक”
आज अमृतयुक्त नाभि न भेदो
बेहद गंभीर मुद्दे को उठाया है आपने.
हकीकतन इस यंगिस्तान का चेहरा उतना ही काला है जितना की आप ने इसके चाईल्डिस्तान में देखा है...सरकारी स्कूल के ये बच्चे सच में सही शिक्षा और परवरिश की मर झेल रहे हैं....मगर जिन प्राइवेट स्चूलों की लोग महिमान गाते हैं वों बच्चे इनसे कहीं बाद के होते हैं....उनके साथ ये खासियत है की वों जगह के हिसाब से ये सब करते हैं क्योंकि वों सोसिटी का मतलब जानते हैं जबकि इस बच्चों से सोचती ने कोई वास्ता ही नहीं रखा तो ये क्यों रखें ऐसी गई गुजरी सोसिटी से अपना वास्ता...
@AMAR JIT- सर सरकारी स्कूल और कॉन्वेंट स्कूल के बच्चों के व्यवहार में काफी फर्क होता है...कम से कम मेरी तो ये सोच है...और मेरी सोच का आधार किसी की बात या लेख न होकर मेरी खुद की ऑब्सरवेशन है....
और अच्छे घरों के बच्चे का पर्याय अब केवल वे बच्चे रह गए है जो आर्थिक रूप से सक्षम घर के होते है....
खैर..मैं ये नहीं कह रही की मैने सब सहीं लिखा...पर मुझे कुछ महसूस हुआ...वो लिखा मैने....
आपकी शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने इसे पढ़ा....
बच्चों को संस्कार की जरुरत है
उनके माता पिता इस पर ध्यान नहीं दे रहे हैं।
इसलिए समाज में यह समस्या उत्त्पन्न हो रही है।
बात आर्थिक सक्षमता की नहीं संस्कार की है।
gambhir chintan ki jaroorat hai..bahut vicharniya aalekh.
कैसे ये सब सुधार जाए नहीं मालूम...
ये सब होने की एक वजह हैं कि हमारा समाज एक नंगे पश्चिमी समाज के पीछे भाग रहा है....टी.वी., अखबार, सडक...सब जगह तो अश्लीलता भरी हुई है तो ये बच्चे भी क्या करेंगे......
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"हमारा हिन्दुस्तान"
"इस्लाम और कुरआन"
Simply Codes
Attitude | A Way To Success
विचारणीय आलेख। किसी वयस्क द्वारा बच्चों को चलती बस से धकियाना तो बडे अमानवीय अपराध की श्रेणी में आना चाहिये। जब बडे ऐसे गैर-ज़िम्मेदार हैं तो बच्चोंके बारे में क्या कहा जाये? प्रश्न यह है कि इन बच्चों को इस दलदल से निकाला कैसे जा सकता है?
आज सामाजिक और राष्ट्रिय स्तर पर सामाजिक जिम्मेवारियों के प्रति लगाव ख़त्म होता जा रहा है और इसे भ्रष्ट नेता और पार्टी अपने निहित स्वार्थ के लिए ख़त्म करने की दिशा में काम कर रहें हैं ..हमसब को हप्ते में एकदिन अपने देश और समाज की दशा और दिशा के बारे में सोचने और उसके लिए कुछ करने के लिए लगाना चाहिए ...ये बच्चे और इनके संस्कार को बनाना भी हमारी सामाजिक जिम्मेवारी है ...हमारे देश की सरकार को तो पूंजीवाद की दलाली करने से ही फुर्सत नहीं है ...
सचमुच दुखद वाक्य -मगर शायद उनके साथ ठीक हुआ मगर अगर उनमें से एक बस के नीचे आ जाता तब ?
क्या गाली गलौच शब्द सही है या गाली गलौज ?
ये विचारणीय नहीं त्वरित कार्रवाई वाला विषय है नारी के प्रति सोच बद्लने कठोर कार्यवाई ज़रूरी है
हिजड़ों पर हंसना, लंगड़े को लंगड़ा कहना औरत को सामग्री करार देना सांस्कृतिक अपराध ही तो है ताज़ा लेख देखिये यहां=> http://bharatbrigade.com/2010/10/blog-post_17.html
अक्सर सुनने में आता है कि बाल्य मन एक सफेद कागज की भांती होता है। उस पर व्यक्ति जैसे चाहे, वैसे चित्र उकेर सकता है,या फिर जैसा भी चाहें,लिख सकते हैं। उसकी सोच को जिस दिशा में मोड़ना हो, सरलता से मोड़ा जा सकता है। लेकिन जिस समाज में संस्कृति के मूल पर ही कुठाराघात हो, वहाँ देश की भावी पीढी में संस्कार-निर्माण की अपेक्षा करना किसी मूर्खता से कम नहीं है.....वहाँ तो फिर यही कुछ देखने को मिलने वाला है, जैसा कि आपने अपनी इस पोस्ट में दिखाने का प्रयास किया है....
bachchon me ek badakpan ka dikhna (yahan badakpan ka matlab mahanta se nahi liya jaye)jisme ek adult ki tarah behwar karna hota hay ye kahin na kahin ham kathit bade logon ki galtiyon ka natija bhi ho sakta hay..ab media sex aur hinsa ko choklet ki parosega to bachche to sikhenge hin..aur kahin na kahin apply karenge...hame bahut sayam se kaam lena chahiye aisi haalat me ..bachchon me ek badlaw aap ya ham pyar se samjha kar la sakte hay..nahi to jahan bachchon ne adult ki tarah behwar kiya wahin bade logon ne uspar apni taqut ka prayog kar bachchon jaisi harkat kar diya..jo bilkul thik nahi...ab ham ya aap kaise ummid karenge bachchon me ek badlaw lane ka..
शबनम जी आपने मेरे कमेंट्स का जो जवाब दिया उस परिप्रेछ्य में कुछ और लिखना तो नहीं चाहता था किन्तु आज सुबह सुबह N D TV NEWS में समाचार देखकर लगा की कुछ लिखा जाय समाचार में दिखाया जा रहा था कैसे दिल्ली के रैसजदिया शराब के नशे में धुत होकर सडको पर एक्सीडेंट कर रही है और पकडे जाने पर पुलिस वाले और मिडिया पर ही धौस ज़माने लगी की.....दो कोड़ी की औकात है तुमको तो मै खड़े खड़े खरीद लुंगी साथ में अपशब्द भी कह रही थी और ये बात सिर्फ आज की ही नहीं है आये दिन समाचारों में बड़े शहरो में इस तरह रहिस्जदियो के कारनामो के चर्चाये आये दिन सुनने को अक्सर मिलती है! हॉल ही में हमारे शहर रायपुर में प्रतिष्ठित ला यूनिवर्सिटी के गेट टू गेदर कार्यक्रम में शराब के नशे में धुत लड़के लडकियों ने वो कारनामे किये की बात देखते ही बनती थी हद इतनी पर हो गयी की लडकियों के कपडे फट चुके थे शराब के नशे में लडकिया अपने पैरो में खड़ी भी नहीं हो पा रही थी....... मुझे लगता है की वे ना तो नादान थी ना ही गरीब घर की थी और ना ही उनकी शिक्झा किसी सरकारी स्कूल में हुई लगती थी
@amar jeet- सर वहां बेशक परवरिश में कमी रही है.....
सरकारी स्कूल और कॉन्वेंट स्कूल के बच्चों के व्यवहार में काफी फर्क होता है, क्या विचार हे आप के???????? वेसे मै ओर मेरा पुरा खान दान सरकारी स्कुल मै ही पढा हे, ओर आज मेरे बच्चे भी सरकारी स्कूल मे ही पढ रहे हे. हम सब को अपने देश की ओर इस के वासियो की इज्जत करनी चाहिये,
Hey Shabnam,
Nice article.
~Anshul
सुन्दर और अच्छी रचना...
bhn shbnm bhut khub likha he mubark ho. akhtar khan akela kota rajsthan
मैं भी सरकारी स्कूल में पढ़ा हूं परंतु तब सरकारी स्कूल असरकारी थे, अब पूरे सरकारी हो चुके हैं, निजी स्कूलों का भी यही हाल है। आप दिनोंदिन घट नहीं, मतलब बढ़ रही वारदातों को तो पढ़ती हैं, स्कूल नहीं, यह बुराईयां हैं, जो होती तो सबमें हैं, पर जिनमें सर उठा लें। जिन्होंने उन बच्चों को उठाकर फेंक दिया। वे भी इसलिए हिम्मती हो गए क्योंकि वे बच्चे थे, अगर बड़े होते तो कोई नहीं उलझता उनसे, क्योंकि उनके पास हथियार भी हो सकते हैं। वैसे जबान का हथियार सही से इस्तेमाल न हो तो सबसे खतरनाक हथियार वही है। सार्थक चिंतन।
Bachchon ki kya kahen poore desh ka mahol hi chitajanak hai, na jane hal niklega ya niklega bhi ki nahin.
स्थिति बहुत विकट है।
आस पास का वातावरण ऐसा दूषित हो चुका है ... विचारणीय लेख
aalekh bal manovigyan se sambandhit hai.bachhe bahut jaldi nakal karte hain , yah jane bagair ki skabdon ke kya arth hai aur harkaton ka kya parinam goga.aapne bahut achha vishay ko chuna hai .es par upyogi charcha ho sakti hai.bachhon ko dandit karna samasya ka samadhan nahin hai.badhai-----by-dadulal joshi *farhad*
aapka aalekh padha. yah bal manovigyan se sambandhit hai.bachhe bahut jaldi nakal karte hain,yah jane bagair ki shabdon ke kya arth hain aur harkaton ka kya parinam hoga.aapne sadharan si lagne wali atyant mahtwapurna samasya ko chuna hai.es par upyogi charch/bahas ki ja sakti hai.bachhon ko dandit karna samasya ka samadhan nahin hai.-badhai.achha lekh hai.by-dadulaljoshi*farhad*
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एक बड़े शहर और हमारे देश की राजधानी में ऐसा हो रहा है। हमारे छोटे शहरों में तो यह रोज़ का हाल है। यह सब उनकी पारिवारिक और सामाजिक सरंचना का कमाल है।
from:--http://dharmendra61.blogspot.com
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