शीर्षकहीन कविता

ज़िंदगी थामे
रफ्तार का दामन
यूं आगे बढ़ी यूं आगे बढ़ी..
मैं लड़खड़ाकर
इक बार जो गिरी
फिर संभल न सकी
वापस चल न सकी..
वक़्त बढ़ता गया
फासले बढ़ चले
मेरे हाथों से फिसली
खुशी जो इक दफा
फिर वापस मिल न सकी
होठों पर खिल न सकी..

1 टिप्पणियाँ:

अच्छा लिखा है आपने. कभी-कभी हम गिरकर जल्दी नहीं संभल पाते. लेकिन यह कविता लिखना खुद संभलने का रास्ता तलाशने की खोज जैसा ही है.

 

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