वो मजबूर थी
इसकी मर्ज़ी है
पार करनी है
ये लक्ष्मण रेखा....
उसमें सुरक्षा थी उसकी
इसमें दम तोङती ख्वाहिशें है
वो सुकून के लिए थी
इसमें दम घुटता है
पार करनी है
ये लक्ष्मण रेखा....
ज़माना वो और था
वो डरती थी
कौन बचाऐगा उसे
ये सवाल था गहरा...
ये डरती तो है
पर लङती भी है
सवाल है कई सामने इसके
जवाब पर उसके ये ढूँढती है
क्यूँकि
पार करनी है
ये लक्ष्मण रेखा.....
(निरुपमा पाठक...जानती नहीं हूँ उसको पर जानती भी हूँ...कोई रिश्ता नहीं है मेरा उससे पर रिश्ता है भी...वो भी उस समाज का हिस्सा थी जिसका मैं हूँ... उसने अपनी लक्ष्मण रेखा को पार करना चाहा...पर बलि चढ़ा दी गई...पर निरुपमा तुम ग़लत नहीं थी...ग़लत थी वो लक्ष्मण रेखा...और वो लोग जिन्होंने उसे खीचा था...अफ़सोस कि तुम उसे पार न कर पाई...पर ये लक्ष्मण रेखा हम पार करेंगे....तुम्हें मेरी श्रृद्धांजली....ये कविता....)