रिश्तों को ज़मीन पर उतरना ही होता है, चाहें शुरू कहीं से हो..!



वो एक दूसरे से नहीं, एक दूसरे के ख़्यालों से मिले थे पहली दफे। इसकी दुश्वारियां उसने महसूस की थी और उसकी तनहाईयों में ये शामिल हो गया था। वो दोनों अपनी अपनी ज़िंदगियों में बेहद मसरूफ थे बावजूद इसके, एक दूसरे के आज और कल में अक्सर झांकते रहते थे। इसके एक लाइन के स्टेटस से वो हज़ारों बातें समझने लगा था और उसकी लिखी नज़्मों से वो उसे पढ़ने लगी थी। ये दोनों जानते भी नहीं थे, कि जानपहचान किस कदर बढ़ने लगी थी। 

लिखावट के सिलसिले लिखावट पर ही नहीं रहे, अपनी अपनी आवाज़ें भेजी गईं, गुनगुनाहटें भेजी गईं। लेकिन ये आवाज़ें वक्त से बंधकर आई थीं, किसी एक ख़ास लम्हें में कैद की गई आवाज़ें। अब ये आवाज़ों का रिश्ता हो चला था। अब हसी मुस्कुराहटें खिलखिलाहट सुनी जाने लगीं एक दूसरे की। कईं सारी बातें, जिनमें ज़िंदगी के फलसफे थे, वो एक दूसरे से किया करते थे और अब तो साथ गुनगुना भी लिया करते थे। इसकी आदत थी, गाने गाते गाते बोल भूल जाने की, और उसकी आदत थी बीच बीच में याद दिलाने की.. ऐसे कई गाने पूरे होने लगे। 

और फिर.. उन दोनों का आमना सामना हुआ। कई महीनों की अनदेखी मुलाक़ातों को नज़र मिल गई। अक्सर जैसा होता है, पहली बार मिलने पर कुछ कहना कुछ पूछना मुश्किल सा लगता है, इनके बीच नहीं हुआ। आज हज़ारों किस्से-अफसाने एक दूसरे ने कहे सुने, और कुछ हद तक समझे भी। आज एक की मुस्कुराहट दूसरे के चेहरे पर उतर आई। आज कईं धूल खाई यादों को झाड़ा गया चमकाया गया, एक दूसरे के सामने रखा गया। एक लम्बे वक़्त बाद आज, एक अधूरी मुलाक़ात मुक़म्मल हो गई थी।

बात सच ही है, रिश्तों को ज़मीन पर उतरना ही होता है, चाहें शुरू कहीं से हो..!

(शबनम ख़ान)