रात और मैं...जैसे...

खाली ख़ामोश रातों में

अधूरे सपने

ज़ख्मी ख्वाहिशें

बेचैन यादें,

अक्सर जागे रहतें हैं

संग संग मेरे...

ज़ोर आज़माइशें

करते हैं

जलते बुझते हैं

उनका सामना

करती मैं

जैसे...

लौ लड़ रही हो

बेरहम हवा से...

जैसे...

तड़प रही ज़मीन हो

कहर-ए-आफ़ताब से...

जैसे...

हर सांस लड़ रही हो

आने वाली

अगली सांस से...

जैसे...

वक़्त हो चला

ख़फा हो

मेरे हर एक अंदाज़ से...

जैसे...

जैसे...

12 टिप्पणियाँ:

ईट वाज़ जस्ट ग्रेट!! एक्सीलेंटली एक्सप्रेस्ड!! ग्रेट शबनम!!

 

बहुत खूब्………कभी कभि खुद से लडना ही मुश्किल होता है।

 

बहुत खूबसूरती से लिखे एहसास ...

 

जिन्दगी की तड़फ को आपने अच्छी तरह से बयां किया है. खाली खामोश रातों में अधूरे सपनों के जख्मों से घायल मन की कहानी को सजीव कर दिया है आपने.
धन्यवाद

 

हर सांस लड़ रही हो

आने वाली

अगली सांस से.

बेहतरीन भाव लिए.... बहतरीन कविता.
शुभकामनाएं.

 

behad marak aur prbhavi rachna!! bahut behtar!!

 

पढ़ते हुए ऐसा लग रहा था मानो सामने कोई फिल्म चल रही हो... सब कुछ एकदम सजीव लग रहा था... पढ़कर अच्छा लगा...

 

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