संबोधन


पत्र के अंत में
लिखा शब्द
'तुम्हारा'
जोड़ देता है
एक क्षण के लिए
मुझे तुमसे
लेकिन
अगले ही क्षण
यह संबोधन
बन जाता है
सवाल
कितना और
किस हद तक 'तुम्हारा'?
वास्तव में
स्वयं में सम्पूर्ण
यह शब्द
लाचार है
अपनी ही
अभिव्यक्ति में...

4 टिप्पणियाँ:

ख़ूबसूरत नज़्म !
छोटी लेकिन मुकम्मल !

 

बहुत ही सुन्दर! बेहतरीन!

 

कविता में तुरंती प्रवाह

मन कहता है वाह वाह
झूठ नहीं बोला है मैंने भी।
प्‍याजो की जवानी

 

इस्‍मत जी, नमस्‍कार। गोवा से आपको यहां देखकर मन हर्षित है।

 

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