भाषा बङी या भावनाएँ?


एक शोर सुनकर आज लिखने पर मजबूर हो गई हूँ।हर तरफ से भाषाओ की लङाई का शोर सुन रही हूँ।कोई हिन्दी का घोर समर्थक है तो कोई अंग्रेज़ी भाषा को अनिवार्य मानता है कुछ उर्दू,अरबी,संस्कृत जैसी भाषाओं को लुप्त होने से बचाने के लिए चिल्ला रहा है कोई क्षेत्रीय भाषाओ के पीछे दीवाना हुआ जा रहा है तो कोई विदेशी भाषा को सीखने का नया फैशन अपना रहा है।ये बातें मेरे मन में हलचल पैदा कर रही है।मन में बार बार ये सवाल उठ रहा है भाषा बङी है या भावनाएँ? भाषा का तो यही मक़सद है न कि हम एक दूसरे की भावनाओं को समझ व समझा सके।ये मक़सद तो हर भाषा में पूरा हो सकता है।ये भी ज़रूरी नहीं कि भाषा का सर्वोच्च व शुद्घ रूप का ही प्रयोग किया जाए।टूटी-फूटी और मिश्रित भाषा के प्रयोग से भी तो काम चलाया जा सकता है न.. अगर विचार अच्छे हो तो वो हर भाषा में ही अच्छे लगेंगे।हांलाकि मैं जानती हूँ कि भाषा किसी भी सभ्यता का एक अभिन्न अंग होती है पर वह केवल एक अंग मात्र है उसके लिए समस्त सभ्यता को प्रताङित नहीं किया जा सकता।

तो मित्रों,भाषाओ की इन चिन्ताओ और लङाई में बङा सीधा सा पक्ष है मेरा कि भावनाएँ भाषा से ज़्यादा महत्वपूर्ण है।भाषा की लङाई में कहीं हम भावनाओं को दरकिनार कर रहे है।आप लोगो के पक्ष भी ज़रूर जानना चाहूँगी।

7 टिप्पणियाँ:

शबनम जी, भाषा हमारे अभिव्यक्ति का वह आईना है जिसमें हम अपनी सभ्यता और संस्कृति की झलक पाते हैं.

 

bhasha se hum apni bhavnae vyakt karte hae. saralta se dusro ko samajh aa jaye vahi bhasha pryog me lani chahiye.

 

आपसे सहमत हूँ। भावनाओं को समझो। भाषा तो बस एक माध्यम है।

 

Shabanam ji,
Bahut hee achche mudde par sarthak baten likhee hain apane .meree shubhakamnayen apake satha hain.Bhavishya men nishchit roop se ap ek safal patrakar banengee.
Hemantkumar

 

सही इशारा किया है आपने.
भाव की प्रधानता ही सबको सुहाती है और मकसद भी विचारों का सही सही सम्प्रेषण ही हो.
भाषा को लेकर यहाँ विवाद या समर्थन उचित नहीं है. ये तो अपने अपने परिवेश, परवरिश और शिक्षण के माध्यम का परिणाम है.
ये हिन्दुस्तान की विशेषता है की यहाँ विभिन क्षेत्रवासी मिली जुली भाषा का प्रयोग करते हैं. किसी भी भाषा का जबरन प्रचार प्रसार या दुसरे पर थोपना दुखद है. हम सभ्यता की अन्य निशानियों की तरह किसी भी पुराने भाषा को स्वेच्छानुसार प्रयोग करते हुए सुरक्षित रख सकते हैं.

हिंदी चुकी राष्ट्रभाषा है तो सभी नागरिकों का कर्त्तव्य बनता है की इसे यथोचित स्थान और सम्मान दें.

- सुलभ

 

बहुत अच्छे मुद्दे पे बहुत सार्थक लिखा है.....

 

भाषा अभिव्यक्ति का शसक्त माध्यम हैं , चाहे वह भावना हो या कुछ और लेकिन भाषा से सभ्य मिजाज और परिवेश की भी अभिवयक्ति होती हैं, इसीलिए चाहे कोई भी भाषा हो उसकी मूल आत्मा से खिलवाड़ करने का अधिकार किसी को नहीं होनी चाहिए ! सुनहरे भविष्य के लिए एक व्यवहारिक अनुशासन की जरुरत सभी के लिए होती हैं , यह बात किसी भी भाषा पर भी लागु होती हैं ! इसीलिए हमें टूटी -फूटी भाषा की नहीं एक सभ्य वाय्व्हरिक भाषा की जरूरत हमेशा बनी रहेगी........

 

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