और वो चला गया......



हूँ तो मैं नास्तिक, पर कभी-कभी परिवार के साथ निज़ामुद्दीन औलिय़ा की दरगाह पर चली जाती हूँ। कोई ईश्वरीय शक्ति नहीं, वहाँ की चहल-पहल और रौनक मुझे वहाँ खीच ले जाती है। कुछ दिन पहले मैं भी दरगाह पर गई। शाम का वक्त था। मेरी माँ हर बार की तरह प्राथना में लीन हो गई तो मैं एक तरफ चबूतरे पर बैठ गई और आने-जाने वाले श्रद्धालुओं को देखने लगी। लोग हाथों में फूलो की टोकरी, रंग-बिरंगी मखमली चादरें, अगरबत्ती, ईलाइची दाने लेकर बाबा को खुश करने के लिए आए हुए थे, ताकि उनकी मुरादें जल्दी-जल्दी पूरी हो सकें। उनके चेहरों को देखकर मैं उनके वहाँ आने का कारण जानने की अपनी अजीब सी कोशिश में पूरी तरह डूबी हुई थी (चूंकि बहुत से लोग आज दूसरों के बारे में सोचने को वक़्त की बरबादी मानते हैं लेकिन मैंने आज भी अपने सीने में इंसानियत को ज़िन्दा रखा हुआ है) तभी अचानक मुझे महसूस हुआ जैसे कोई मेरा ध्यान अपनी तरफ करने की कोशिश कर रहा है। देखा तो एक 4-5 साल का नन्हा, खामोश आँखों वाला एक लङ़का पास ही खङा़ हुआ था। मैंने जिस तरह हैरानी से उसे देखा था, उससे उसे लगा कि मैं शायद नाराज हो गई हूँ और किसी भी पल उस पर अपना गुस्सा उतार सकती हूँ। वो सहम कर पीछे हट गया। मैं अपने चेहरे पर मुस्कुराहट लाई और उसे पास बुलाने का इशारा किया। डरा सहमा वो बच्चा मेरे पास आया तो मैंने उसका हाथ पकङ़ कर अपने पास बिठा लिया। कपङो़ के चीथङो़ में लिपटा वो मासूम पहले तो डर के मारे बैठने का साहस नहीं कर पा रहा था फिर मेरे जोर देने पर वह बैठ गया। मैंने पूछा, क्या हुआ? मेरे पास क्यूँ आये? मेरे इस प्रश्न पर उसके सूखे होंठ हिले तक नहीं, जैसे सिले हुए हों। मैंने प्रश्न दोहराया। तब उसने काँपती ज़ुबान में कहा, पैसे दे दो। उसके इस करूणामयी निवेदन ने उसके प्रति मेरी जिज्ञासा को और बढा दिया था। मैंने स्नेहपू्र्वक कहा, अच्छा दूंगी, पर पहले थोङी देर मुझसे बातें करो। उसने हाँ में सिर हिलाकर मेरी प्रश्न रूपी रेल को जैसे हरी झंडी ही दिखा दी।
फिर मैंने उससे उसका नाम पूछा, उसने बताया "साहिल"। मेरे इस सवाल पर कि वह यहाँ किसके साथ आया है, वह खामोश रहा। सवाल दोहराने पर उसने बताया कि वह अपनी नानी के साथ यहाँ आया है। माँ-बाप के बारे में पूछने पर उसके कोमल मुख पर उदासी के भाव उभर आये...कुछ पल खामोश रहने के बाद उसने बताया कि उसका पूरा परिवार दरभंगा(बिहार) में हैं। जब उससे यहाँ (दिल्ली) आने का कारण पूछा तो उस नन्हीं सी जान ने तपाक से उत्तर दिया पैसा कमाने। जब उससे रहने-सोने के ठिकाने के बारे में पूछा तो उसने निराशाजनक स्वर में कहा फुटपाथ पर। इन दो शब्दों के जवाब ने मुझे कुछ पल के लिये बेज़ुबान कर दिया। उसके चेहरे से उसका दर्द साफ झलक रहा था।
रोज न जाने कितने लोग अन्य राज्यों से दिल्ली आते हैं। उद्देश्य वही....पैसा कमाना। अपने इस काम मे वे लोग अपने बच्चों का भी भरपूर प्रयोग करते हैं। खेलने-कूदने और शिक्षा अर्जित करने की उम्र में उन्हें या तो मजदूरी करनी पङ़ती है या फिर भीख मांगनी पङ़ती हैं। दोनों ही सूरत में उनका बचपन अंधेरे में ढकेल दिया जाता है। कभी अपने आसपास नजर घुमाकर देखिये तो....जिन्हें हमारे नेता अपने भाषणों में अत्यंत गर्व के साथ भारत का भविष्य बताते घूमते हैं, वो गौरवशील भविष्य खुद अपने भविष्य से अन्जान होता है। सरकार ने तो बाल मजदूरी और भीख माँगने को अवैध घोषित कर दिया...पर क्या इन मासूमों को कोई उचित विकल्प उपलब्ध करवाया ? कोई भी माँ-बाप अपने जिगर के टुकङे़ को अपनी खुशी से इतनी दूर भीख मांगने नहीं भेजेगा, अवश्य मजबूरी ही रही होगी....
वो मासूम बच्चा..कितना दर्द था उसकी आँखों में..क्या मैं 2-5 रू. देकर उसका बचपन सुधार सकती थी? मैं तो अपनी सोच में खो गई थी कि तभी उस बच्चे के निवेदनात्मक शब्द फिर मेरे कान में पङे़ “अब पैसे देदो”....मैं उस मासूम दर्दभरी आँखो का दर्द और नहीं बढा सकती थी। मैनें उसे कुछ पैसे दिये तभी एक आवाज आई “कहाँ मर गया, जल्दी इधर आ”....देखा तो एक बूढी महिला आवाज दे रही थी, संभवतः वो उसकी नानी ही थी। आवाज सुनकर वो बच्चा काँप गया और उसकी तरफ जाने लगा। न जाने क्यूँ मैने उसे आवाज लगाई और फिर उसे अपने पास बुलाया तो वो दौङ़कर आया...मैने दो पल उसका चेहरा देखा फिर अपने पास से 2-3 टाफिया निकाल कर उसे दी। वो मुरझाया चेहरा खिल गया.....कितना मासूम होता है न बचपन..2 टॉफी देखकर वो अपने सारे दुख भूल गया। उसने मस्कुराहट के साथ मुझे देखा....और फिर वो चला गया....चला गया अपनी आँखों का दर्द मुझे देकर....

6 टिप्पणियाँ:

सच्ची इबादत तो यही है की आपने अपने दिल में इंसानियत को जिंदा रखा हुआ है...

 

bahut achhi soch se bhari rachna

http/jyotishkishore.blogspot.com
kripya ise zaroor dekhe (aatmvichar)

 

बढिया लिखा है. सोच और रफ्तार बनाए रखें. शुभकामनाएं.

 

अच्छा सोचा शबनम। ज़्यादा नहीं कहूँगा। बस इतना ही कहूँगा कि तुम वहाँ तक सोच रही हो जहाँ तक कम ही लोग सोचते है। अच्छा। बहुत खूब। शुभकामनाये।

 

आपके मन के दर्द को अपने सामने एक सहकार के रूप में पारही हूं और सोच रही हूं कि कैसे बर्दाश्त किया होगा उसे।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।

 

namskar shab ji aap ne baahoot aacha likha aap apani rachantamtka ko banaye rakhe yaha v aaye
httt://freejyotishsewa.blogspot.com thanx

 

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