मेरे मन की उलझन......

मेरे मन की जो उलझन है,
वो कोई समझता ही नहीं.....

जिस तूफान में मैं घिरी हूँ,
वो किसी को दिखता ही नहीं....

समुन्दर की लहरे चाहे जितना टकरायें मुझसे
वजूद को मेरे....वो हिला सकती नहीं

चुनौंतियों का सामना मैं किये जा रही हूँ
जो जीवन मिला है उसे जिये जा रही हूँ

गर समाज की नजरों में मैं गलत हूँ
तो ऐसे "समाज" की...मैं परवाह करती नहीं

जो सच हैं वो बोलती हूँ
जो सही है वो करती हूँ

नुकसान अगर होता भी है मुझे कुछ
उस नुकसान से मैं डरती नहीं

ख्वाहिश इतनी है अपने साथ रहे बस
फिर किसी उलझन की मैं फिक्र करती नहीं

मेरे मन की जो उलझन है 
वो कोई समझता ही नहीं....

जिस तूफान में मैं घिरी हूँ
वो किसी को दिखता ही नहीं....




3 टिप्पणियाँ:

चुनौंतियों का सामना मैं किये जा रही हूँ
जो जीवन मिला है उसे जिये जा रही हूँ

अपने चरित्र को चरितार्थ करती ये पंक्तियाँ क्या ख़ूब लिखी हैं तुमने। सब कुछ तुमने लिख ही दिया है तुमने। अब और क्या बोलूँ ? तुम्हारी अगली पोस्ट का इन्तज़ार रहेगा।
तुम्हारा दोस्त-
अमृत
(08-10-2009)
(12:37 प्रात: )

 

मेरे मन की जो उलझन है,
वो कोई समझता ही नहीं.....

HUM SAMAJHTE HAI

 

kavita bahut acchee hai man ko chuen wali ekdam sahi manisha malik

 

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